Me Mrutyu sikhata hu -pravachan - 15 bhag - 3

 प्रवचनमाला--- मैं मृत्यु सिखाता हूँ

 प्रवचन नं---15

भाग----3....

Me Mrutyu sikhata hu -pravachan - 15 bhag - 3




वैज्ञानिक कहते हैं कि जहां आप की आंखें हैं —आमतौर से हम सोचते हैं कि चूंकि यहां आंखें हैं इसलिए हम देख लेते हैं—लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि सचाई उलटी है। चूंकि हम यहां से देखना चाहते हैं, इसलिए यहां आंखें पैदा हो गई हैं। अन्यथा आंख की चमड़ी में और हाथ की चमड़ी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। आंख पर भी जो है वह चमड़ी है। लेकिन वह चमड़ी देखनेवाली पारदर्शी हो गई है। वही चमड़ी नाक पर है, लेकिन वह चमड़ी सूंघने वाली है। उसका पारदर्शी होना सूंघने की दिशा में हो गया है। कान पर भी वही चमड़ी है, वही हड्डी है, वही तत्व है, लेकिन वे सुननेवाले हो गए हैं।


ये भी हमारे संकल्प के ही परिणाम हैं। करोड़ों वर्षों में, लाखों वर्षों में हमने जो संकल्प किया है, वह फलित हो गया। एक व्यक्ति का संकल्प नहीं है, कलेक्टिव विल है, समूह संकल्प है। पीढ़ी—दरपीढ़ी ऐसा होता रहा है। वह संकल्प फलित हो गया।


रूस में अभी एक स्त्री है जो अंगुलियों से पढ़ पाती है —बेल नहीं, अंधे की भाषा नहीं— साधारण किताब आंख बंद करके सिर्फ अंगुली अक्षरों पर रख कर पढ़ पाती है। अब ये अंगुलियां जीवन भर प्रयोग करने से इतनी संवेदनशील हो गई हैं कि जरा—सी काली रेखा के भेद को भी कोरे कागज से अलग कर पाती हैं। हमारी अंगुलिया इतना नहीं कर पाएंगी।


एक चित्रकार जब देखता है रंगों को, तो हमें सिर्फ हरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं, उसे हजार ढंग के हरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। हरे में भी हजार शेड होते हैं। साधारण आदमी के लिए हरा एक रंग है। चित्रकार के लिए जैसे रंगों की संवेदनशीलता है, उसके लिए हरा एक रंग नहीं है, हरा भी हजार रंग है। एक हरे और दूसरे हरे में उतना ही फर्क है जितना हरे और पीले में या हरे और लाल में फर्क है। लेकिन उतने बारीक शेड देखने के लिए आंखों की एक विशेष संवेदनशीलता चाहिए। वह हमें नहीं दिखाई पड़ती।


एक संगीतज्ञ को स्वरों की बहुत बारीक स्थितियां दिखाई पड़ती हैं, जो हमें कभी पकड़ में नहीं आतीं। संगीतज्ञ को न केवल स्वरों की बारीक स्थितियां दिखाई पड़ती हैं, बल्कि दो स्वरों के बीच में जो अंतराल होता है, जो शून्य होता है, वह भी अनुभव होने लगता है। असली संगीत वहीं से पैदा होता है। असली संगीत स्वरों से पैदा नहीं होता, स्वरों के बीच में जो साइलेंस के क्षण हैं, असली संगीत वहीं पैदा होता है। दो तरफ के स्वर उस शून्य को उभारने का काम भर करते हैं, और कुछ भी नहीं करते। लेकिन उस शून्य का हमें कोई पता नहीं है। संगीत हमारे लिए शोरगुल है, आवाजें है। संगीतज्ञ के लिए, जिसकी गहरी पैठ है, उसके लिए संगीत का शब्द से, स्वर से कोई संबंध नहीं है। दो स्वर तो सिर्फ बीच के निःस्वर स्थिति को उभारने के लिए हैं, इससे ज्यादा कुछ अर्थ नहीं है उनका। जिस चीज का हम प्रयोग करते हैं निरंतर, संकल्प करते हैं निरंतर, वह प्रकट होने लगती है।


मनुष्य का यह सारा व्यक्तित्व भी…… पक्षियों का, पौधों का, पशुओं का सारा व्यक्तित्व उनके संकल्प का ही फल है। हम जो गहरा संकल्प करते हैं, हम वही हो जाते हैं।


रामकृष्ण के जीवन में एक उल्लेख है, जो कीमती है। रामकृष्ण ने अपने जीवन में पांच —सात धर्मों की साधनाएं कीं। उनको यह खयाल आया कि सभी धर्म एक ही जगह पहुंचा देते हैं, तो मैं सभी


रास्तों पर चलकर देखूं कि वहां पहुंचा देते हैं कि नहीं पहुंचा देते हैं। तो उन्होंने ईसाइयत की साधना की, उन्होंने सूफियों की साधना की, उन्होंने वैष्णवों की साधना की, उन्होंने शैवों की साधना की तांत्रिकों की साधना की। जो भी उन्हें उपलब्ध हो सकी साधना, वह उन्होंने की। एक बहुत अदभुत घटना तो तब घटी….. क्योंकि ये सारी साधनाएं तो आंतरिक थीं, बाहर से पता नहीं चल सका। रामकृष्ण कहते थे तो ठीक था। जब रामकृष्ण सूफियों की साधना करते थे, तब हम कैसे बाहर से जानें कि उनके भीतर क्या हो रहा है। लेकिन फिर एक ऐसी साधना की पद्धति से वे गुजरे कि बाहर के लोगों को भी देखना पड़ा कि कुछ हो रहा है।


बंगाल में एक सखी—संप्रदाय है, जिसका साधक अपने को कृष्ण की प्रेयसी या पत्नी मानकर ही जीता है। सखी ही हो जाता है। वह पुरुष है या स्त्री, यह सवाल नहीं है। पुरुष एक ही रह जाते हैं कृष्ण और साधक उनकी प्रेयसी होकर, उनकी राधा बनकर, उनकी सखी बनकर जीता है। छह महीने तक रामकृष्ण ने सखी—संप्रदाय की साधना की। और आश्चर्य तो यह हुआ कि उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। अगर वे दूर से बोलें, तो कोई भी न समझ पाए कि वे पुरुष हैं। उनकी चाल स्त्रैण हो गई। असल में स्त्री और पुरुष एक जैसा चल ही नहीं सकते, क्योंकि हड्डियों के कुछ बुनियादी फर्क हैं, चर्बी का कुछ बुनियादी फर्क है। स्त्री को चूंकि बच्चे को पेट में रखना है, इसलिए उसके पेट में एक विशेष जगह है, जो पुरुष के पास नहीं है। इसलिए उन दोनों की चाल में फर्क हो जाता है। उनके पैर अलग ढंग से पड़ते हैं। कोई स्त्री कितना ही संभल कर चले, उसका चलना कभी पुरुष जैसा नहीं हो सकता। स्त्री कभी पुरुष जैसा नहीं दौड़ सकती। कोई उपाय नहीं है। उसके ढांचे का भेद है।


लेकिन रामकृष्ण स्त्रियों जैसा दौड़ने लगे, स्त्रियों जैसा चलने लगे, स्त्रियों जैसी आवाज हो गई। यहां तक भी ठीक था कि कोई आदमी चाहे कोशिश करके स्त्रियों जैसा चलता हो, कोई आदमी कोशिश कर के स्त्रियों जैसा बोलता हो। लेकिन और भी हैरानी की बात हुई। रामकृष्ण के स्तन बड़े हो गए और स्त्रैण हो गए। यहां तक भी बहुत मामला नहीं था, क्योंकि बहुत लोगों को वृद्धावस्था में स्तन बड़े हो जाते हैं, पुरुषों को भी। लेकिन रामकृष्ण को मासिक धर्म शुरू हो गया, जो कि बहुत चमत्कार की घटना थी और नियमित स्त्रियों की भांति उसका वर्तुल चलने लगा। यह मेडिकल साइंस के लिए बहुत चिंतनीय घटना थी कि यह कैसे हो सकता है। और रामकृष्ण ने छह महीने के बाद जब साधना छोड़ दी, तब भी उनके ऊपर कोई डेढ़ साल तक उसके असर रहे। डेढ़ साल लग गया उसको वापस विदा होने में। संकल्प…… अगर रामकृष्ण ने पूरे मन से यह मान लिया कि मैं सखी हूं कृष्ण की तो व्यक्तित्व सखी का हो जाएगा।



ओशो

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