नये समाज की खोज - ओशो प्रवचन - 1 का आधार : मनुष्य का |

 नये समाज की खोज - ओशो

प्रवचन - 1 का आधार : मनुष्य का | 

Naye samaj ki khoj - osho


मेरे प्रिय आत्मन्!

“नये समाज की खोज’ नयी खोज नहीं है, शायद इससे ज्यादा कोई पुरानी खोज न होगी। जब से आदमी है तब से नये की खोज कर रहा है। लेकिन हर बार खोजा जाता है नया, और जो मिलता है वह पुराना ही सिद्ध होता है। क्रांति होती है, परिवर्तन होता है, लेकिन फिर जो निकलता है वह पुराना ही निकलता है। शायद इससे बड़ा कोई आश्चर्यजनक, इससे बड़ी कोई अदभुत घटना नहीं है कि मनुष्य की अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं। समाज पुराना का पुराना है। सब तरह के उपाय किए गए हैं, और समाज नया नहीं हो पाता। समाज क्यों पुराना का पुराना रह जाता है? नये समाज की खोज पूरी क्यों नहीं हो पाती?

इस संबंध में पहली बात मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि एक बहुत गहरी भूल होती रही है इसलिए नया समाज नहीं जन्म सका। और वह भूल यह होती रही है कि समाज को बदलने की कोशिश चलती है, आदमी को बिना बदले हुए। और समाज सिर्फ एक झूठ है; समाज सिर्फ एक शब्द है। समाज को कहीं ढूंढने जाइएगा तो मिलेगा नहीं। जहां भी मिलता है आदमी मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता! जहां भी जाइए व्यक्ति मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता!

समाज को खोजा ही नहीं जा सकता, नया करना तो बहुत मुश्किल है। मिल जाता तो नया भी कर सकते थे। समाज मिलता ही नहीं; जब मिलता है तब व्यक्ति मिलता है। और परिवर्तन के लिए जो चेष्टा चलती है वह समाज के परिवर्तन के लिए चेष्टा चलती है। इसलिए समाज नहीं बदल पाता है। और फिर समाज मिल भी जाए तो बदलेगा कौन? यदि व्यक्ति बिना बदला हुआ है तो समाज को बदलेगा कौन?

बहुत बार क्रांति होती है। फिर क्रांति के बाद पुराने आदमी के हाथ में समाज चला जाता है। गुलामी को तोड़ने की हजारों साल से कोशिश चल रही है। पुरानी गुलामी टूटती मालूम पड़ती है, टूट भी नहीं पाती कि फिर नयी शक्ल में पुरानी गुलामी खड़ी हो जाती है। गुलाम बनाने वाले बदल जाते हैं और गुलाम बनाने वालों के चेहरों के रंग बदल जाते हैं, गुलाम बनाने वालों के कपड़े और झंडे बदल जाते हैं–गुलामी अपनी जगह कायम रहती है। क्योंकि आदमी का दिमाग गुलाम है, उसे बिना बदले दुनिया में कभी गुलामी नहीं टूट सकती।

समाज है नहीं सिवाय एक शब्द के। समाज एक जोड़ है, एक शब्द है; असलियत नहीं है। असलियत व्यक्ति है, सच्चाई व्यक्ति की है। विज्ञान तो इस बात को समझ गया, लेकिन अभी समाज-शास्त्री नहीं समझ पाए हैं।

विज्ञान कहता है कि पत्थर का कोई अस्तित्व नहीं है, एटम का अस्तित्व है, अणु का अस्तित्व है। वे कहते हैं, मैटर, पदार्थ झूठी चीज है; असली में तो भीतर जो अणु है वह सत्य है। अणुओं के जोड़ का नाम पदार्थ है। पदार्थ कुछ भी नहीं है; अणुओं को हटा लो, पदार्थ विदा हो जाएगा। पदार्थ एक समाज है, अणुओं की एक भीड़ है; सच्चाई अणु की है।

समाज भी व्यक्तियों की एक भीड़ है, समूह है; सच्चाई व्यक्ति की है। और क्रांति सदा समाज की चाही जाती है, और समाज कहीं भी नहीं है, व्यक्ति है। व्यक्ति की क्रांति चाहनी होगी। व्यक्ति, नये व्यक्ति की तलाश करनी होगी।

नये व्यक्ति की तलाश करनी हो तो पुराने व्यक्ति को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि पुराने को मिटाना पड़ेगा; तो ही नये का जन्म हो सकता है। पुराने व्यक्ति की क्या खूबियां हैं, वे हमें पहचान लेनी चाहिए। तो शायद हम नये व्यक्ति को जन्म देने में समर्थ हो जाएं। और सच्चाई तो यह है कि अगर कोई भी व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि पुराना आदमी क्या है, तो वह एक क्षण को भी पुराना आदमी रहने को राजी नहीं रहेगा। यह स्मरण भर आ जाए कि पुराना आदमी यह हूं मैं, तो नये आदमी का प्रारंभ हो जाए। यह प्रारंभ ऐसे ही हो जाता है जैसे सपने में याद आ जाए कि मैं सपना देख रहा हूं, बात खत्म हो गई; सपना खत्म हो गया, जागना शुरू हो गया।

सपने में कभी याद नहीं आती कि मैं सपना देख रहा हूं। और अगर याद आ जाए तो समझना कि सपना टूट चुका है। अगर मेरी समझ में आ जाए कि मेरे भीतर पुराना आदमी कौन है, तो नये आदमी की शुरुआत हो गई। क्योंकि जिसे यह समझ में आएगा कि पुराना आदमी यह रहा–वह नया आदमी है। पुराने आदमी को तो समझ में ही नहीं आ सकता कि नया-पुराना क्या है।

एक-एक व्यक्ति को अपने भीतर खोज करनी जरूरी है कि पुराना आदमी क्या है? पुराने आदमी की ईंटें क्या हैं? उसका भवन कैसे निर्मित हुआ?

कुछ थोड़े से सूत्र आज कहना चाहूंगा, फिर रोज हम उनकी बात करेंगे।

पुराने आदमी के बुनियादी आधारों में एक आधार है और वह यह है कि आज तक आदमी जीया नहीं है, आदर्शों में जीने की उसने कोशिश की है। पुराना आदमी आदर्श की बुनियाद पर खड़ा है। और जब तक आदमी को आदर्श पकड़े रहेगा तब तक आदमी नया नहीं हो सकता।

दुनिया के सारे गुरु आदमी की गर्दन दबा रहे हैं, लेकिन उसके ही कल्याण के लिए दबा रहे हैं। तब फिर दबाने का जो दंश है वह विदा हो जाता है।

अगर हिंसक आदमी अहिंसक होने को किसी तरह अपने ऊपर थोप ले, तो वह नये ढंग से हिंसा करने लगेगा, अहिंसक ढंग से हिंसा करने लगेगा। और सबसे बड़ा खतरा यह है कि अगर वह दूसरों के साथ हिंसा करने से अपने को रोक ही ले, तो अपने साथ हिंसा शुरू कर देगा। और अपने साथ जब कोई हिंसा करता है तो हमें कोई एतराज नहीं होता, बल्कि हमें बड़ी खुशी होती है, हम बड़े प्रसन्न होते हैं। हम कहते हैं–बड़ी तपश्चर्या है, बड़ा त्याग है।

एक आदमी अगर सिर के बल धूप में खड़ा हो जाए तो फिर हमें नमस्कार करनी ही पड़ती है। और अगर एक आदमी उपवास करने लगे तो हमें उसके पैर छूने पड़ते हैं। और एक आदमी अगर कांटों की शय्या पर लेट जाए तो हमें फिर तो उसके लिए मंदिर बनाना पड़ता है, उसकी पूजा का इंतजाम करना पड़ता है। अगर आदमी अपने को सताने लगे तो हम सब उसे आदर देने के लिए तैयार हैं।

लेकिन हमें पता नहीं, सताना बराबर है–चाहे किसी और को सताओ, चाहे अपने को सताओ। और ध्यान रहे, दूसरे को सताओ तो दूसरा बचने का उपाय भी कर सकता है, अपने को सताओ तो बचाने का उपाय भी करने वाला कोई नहीं है। बचने वाला भी कोई नहीं बचता, भाग भी नहीं सकता कोई, सुरक्षा भी नहीं कर सकता।

जो आदमी भीतर से हिंसक है और ऊपर से अहिंसा ओढ़ लेगा, वह सेल्फ-टार्चर में, आत्म-हिंसा में संलग्न हो जाएगा। उसे हम तपश्चर्या कहते रहे हैं, त्याग कहते रहे हैं। हमें भी मजा आता है। दूसरे को सताने में हमें मजा आता है। और जब कोई आदमी खुद ही, हमें भी मेहनत नहीं देता, खुद अपने को सताने लगता है तो हमें और मजा आता है। इसलिए त्यागी की पूजा होती है। त्यागी की पूजा हमारे सताने की प्रवृत्ति का हिस्सा है। हम टार्चर करना चाहते हैं। हम किसी आदमी को परेशान करने में रस लेना चाहते हैं। फिर वह आदमी तो बहुत ही कृपालु है जो खुद ही, हमें भी मेहनत नहीं देता, और अपने को सताने का इंतजाम करता है। वह बड़ा दर्शनीय हो जाता है, उसके हमें दर्शन करने पड़ते हैं।

समाज दो तरह के हिंसकों से भरा हुआ है। एक तो वे लोग हैं जो दूसरे को सताने में रस लेते हैं, वे भी बीमार हैं। और एक वे लोग हैं जो खुद को सताने में रस लेते हैं, वे भी बीमार हैं। परपीड़क भी हैं और स्वपीड़क भी हैं। मैसोचिस्ट भी हैं और सैडिस्ट भी। जो दूसरे को सता रहे हैं उन्हें तो कानून भी पकड़ लेता है, लेकिन जो अपने को सता रहे हैं उन्हें पकड़ने वाला कोई कानून भी नहीं है।

हिंसा अगर भीतर है तो अहिंसा के आदर्श इतना ही कर सकते हैं कि हिंसा को अहिंसक शक्लें दे सकते हैं। लेकिन आदमी बदलता नहीं, आदमी वही का वही रह जाता है। बदलने का ढोंग हो जाता है।

अगर नये मनुष्य को पैदा करना है तो पुराने मनुष्य की आदर्शवादिता को चीर-फाड़ कर फेंक देना पड़ेगा और नंगे आदमी को देखना पड़ेगा जैसा वह है।

नहीं, कोई आदर्श नहीं थोपना है, मनुष्य को कुछ भी होने की कोशिश नहीं करनी है, मनुष्य जो है उसी को जान लेना है। अगर वह क्रोध है तो क्रोध, अगर वह घृणा है तो घृणा, हिंसा है तो हिंसा, वह जो भी है, काम है, वासना है, जो भी है, लोभ है, मोह है, जो भी है, उसे जान लेना है, उसे पहचान लेना है।

मैं एक नगर में था और एक संन्यासी वहां लोगों को समझा रहे थे। वे लोगों को समझा रहे थे कि तुम लोभ छोड़ दो तो तुम्हें स्वर्ग भी मिल सकता है।

मैंने उन संन्यासी से कहा कि आप बड़े आश्चर्य की बात कह रहे हैं! आप लोगों को लोभ दे रहे हैं कि अगर स्वर्ग चाहिए हो तो लोभ छोड़ दो। आप उनको लोभ ही सिखा रहे हैं। उनसे कह रहे हैं कि लोभ छोड़ दो अगर स्वर्ग चाहिए हो। लोभ का मतलब क्या होता है? लोभ सदा कुछ छोड़ने को तैयार रहता है–कुछ मिलना चाहिए छोड़ने के लिए सदा तैयार रहता है।

एक आदमी दिन भर सब तरह के दुख झेल रहा है। सो नहीं रहा है, चिंताएं झेल रहा है, क्योंकि उसे धन चाहिए। उसे हम कहते हैं लोभी।

एक दूसरा आदमी धन छोड़ रहा है, क्योंकि उसे स्वर्ग चाहिए। उसे हम कहते हैं त्यागी।

दोनों में कोई फर्क नहीं है। सब लोभी कुछ न कुछ छोड़ने को तैयार हैं, उन्हें कुछ मिलना चाहिए। लेकिन जो स्वर्ग के लिए धन छोड़ रहा है उसे अगर आज पता चल जाए कि अब कानून बदल गया, अब धन छोड़ने से स्वर्ग नहीं मिलता, फिर वह धन छोड़ेगा?

हिंदुस्तान से एक फकीर चीन गया था, कोई अठारह सौ वर्ष होते हैं। बोधिधर्म नाम का एक फकीर चीन गया था। उसके पहले बहुत से बौद्ध भिक्षु चीन गए थे। उन्होंने जाकर चीन के सम्राटों को, बड़े धनपतियों को सिखाया था कि अगर मोक्ष चाहिए, स्वर्ग चाहिए, इतना दान करो, इतना दान करो।

संन्यासी सदा से दान की बात समझाता रहा है, क्योंकि उसके बिना संन्यासी जिंदा नहीं रह सकता। संन्यासी सुबह से शाम तक दान के गुणगान करता है, क्योंकि दान उसकी जिंदगी का आधार है। और पुण्य के लोभी दान करने के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि लोभियों के लिए और बड़े लोभ की आकांक्षा बड़ी प्रेरक हो जाती है।

जो भिक्षु गए थे उन्होंने लोगों को समझाया था कि दान करो, दान करो।

सम्राट था वू चीन का, तो उसने भी करोड़ों रुपये दान किए। फिर यह बोधिधर्म आया तो खबर फैली कि एक बहुत बड़ा संन्यासी आता है, तो सम्राट वू उसका स्वागत करने गया। उसने चरण छुए। तो बोधिधर्म ने पूछा, पैर क्यों छूते हो?

ऐसा साधारणतः कोई संन्यासी पूछता नहीं, पैर आगे बढ़ा देता है। पैर क्यों छूते हो, यह पूछने की जरूरत ही नहीं होती। हम न छुएं तो जरूर संन्यासी की आंखें कहती हैं–पैर क्यों नहीं छूते हो? शायद ऊपर से न कहता हो, लेकिन आंखें कह देंगी, गेस्चर कह देगा, चेहरा कह देगा–अभी तक पैर नहीं छुए!

बोधिधर्म ने कहा कि पैर क्यों छूते हो?

उस सम्राट ने कहा, मैंने सुना है कि पैर छूने से बड़ा पुण्य होता है।

वह बोधिधर्म खूब हंसने लगा और उसने कहा, पैर भी छूने में लोभ न छोड़ोगे! बड़ी कृपा की मेरे ऊपर कि तुमने मेरे पैर छुए। और तुम्हें पुण्य मिल जाएगा, तो मेरा क्या होगा–बोधिधर्म ने कहा–जब पैर छूने वाले को पुण्य हो गया तो जिसने छुलाया उसको पाप लग जाएगा। मैं नाहक नरक जाने को तैयार नहीं हूं। अपना पैर छूना वापस लो!

सम्राट वू बहुत हैरान हो गया। उसने कहा, आप आदमी कैसे हैं! मैंने बहुत भिक्षु देखे, सभी पैर छुलाने में बड़े प्रसन्न होते हैं। वे भी प्रसन्न होते हैं, हम भी प्रसन्न होते हैं।

लगता है कि अपनी ही अशांति कहीं पूरी पता चल जाए तो भी बड़ी मुश्किल हो जाए। हम उसे छिपाए हुए हैं। हम दूसरों के सामने ही झूठे चेहरे नहीं बनाए हैं, अपने सामने भी हमने झूठे चेहरे बना लिए हैं। हम अपने भीतर देखते ही नहीं कि वहां कितनी आग है, कितना जहर है। हम डरते भी हैं कि कहीं वह दिखाई पड़ जाए तो और मुश्किल न हो जाए। हमारी हालत ऐसी ही है जैसे किसी बड़े खाई-खंदक के ऊपर आपको खड़ा कर दिया जाए और आप डर के मारे आंखें बंद कर लें कि कहीं खंदक दिखाई न पड़ जाए। लेकिन ध्यान रहे, बंद आंखों में गिरने की संभावना ज्यादा है, खुली आंखों में बचने की संभावना ज्यादा है।

आंख खोल कर देखना ही पड़ेगा कि भीतर मेरे क्या है? हिंसा है?

है! झूठ कहते हैं लोग कि भीतर ब्रह्म बैठा हुआ है। झूठ कहते हैं लोग कि भीतर मोक्ष बैठा हुआ है। भीतर पूरा नरक है। हां, उस नरक से छलांग लग जाए तो जहां आप पहुंच जाएंगे वहां मोक्ष है। उस नरक से छलांग लग जाए तो जहां आप पहुंच जाएंगे वहां अमृत है। लेकिन वहां से छलांग तब लगेगी जब दिखाई पड़ जाए कि चारों तरफ जहर है, इसमें खड़े होने की जगह नहीं है, यह जगह खड़े होने के योग्य नहीं है, यहां एक क्षण नहीं जीया जा सकता–जिस दिन इतनी इंटेनसिटी से, इतनी तीव्रता से लगता है, उसी दिन छलांग लग जाती है।

आदर्श छलांग नहीं लगने देते, क्रमिक विकास का खयाल छलांग नहीं लगने देता। इसलिए पुराना आदमी पुराना ही बना रहता है। मॉडीफाइड होता चला जाता है। उसी को हम थोड़े हेर-फेर कर लेते हैं। कुछ फर्क नहीं हुआ है, आदमी वहीं के वहीं है जहां दस हजार साल पहले था। सड़कें बदल गई हैं, मकान बदल गए हैं, कपड़े बदल गए हैं, लेकिन और कुछ भी नहीं बदला है, आदमी वही का वही है। महावीर हार गए, बुद्ध हार गए, जीसस, कृष्ण, सब हार गए, कुछ फर्क नहीं हुआ है, आदमी वहीं के वहीं है। एक बुनियादी भूल हुई जा रही है इसलिए उन सबको हारना पड़ा। और आगे भी कृष्ण हारेंगे, आगे भी जीसस हारेंगे, आगे भी बुद्ध और महावीर की हार निश्चित है, अगर वह भूल हमारे खयाल में नहीं आ जाती।

धार्मिक आदमी का एक ही लक्षण है कि वह इतना आनंदित हो कि अपने आनंद के कारण परमात्मा को धन्यवाद दे सके।

उदास आदमी परमात्मा को धन्यवाद नहीं दे सकता, सिर्फ शिकायत कर सकता है। और अगर हमारे महात्माओं को कभी परमात्मा मिल जाता हो–जैसा कि होता नहीं, हो भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसे उदास महात्माओं से परमात्मा भी भागता रहता होगा, बचता रहता होगा–अगर कहीं इनको मिल जाता होगा तो ये पकड़ कर फौरन अपनी शिकायतों की पूरी कहानी उससे कहते होंगे। और परमात्मा अगर इन्हें हंसता मालूम होता होगा तो इन्हें बड़ी पीड़ा होती होगी कि कैसा यह परमात्मा है जो हंस रहा है!

मैं छोटा था तो मेरे गांव में रामलीला होती थी। उस रामलीला में राम बड़े गंभीर होकर बड़े काम करते थे। उसमें रावण होता था, और उसमें सारी कहानी चलती थी। मैं पहली दफा जब रामलीला देखता था तो मुझे सबसे ज्यादा खयाल यह आता था कि ये सब पीछे से आते हैं स्टेज पर, फिर पीछे चले जाते हैं, पता नहीं पीछे क्या करते हैं? पीछे क्या होता है? स्टेज के पीछे क्या होता है?

तो मैंने दो-चार बार अपने बड़े लोगों से पूछा, स्टेज के पीछे क्या होता है?

उन्होंने कहा, स्टेज के पीछे की फिकर छोड़ो, तुम सामने देखो। तुम्हें स्टेज के पीछे से क्या मतलब है? हम रामलीला देखने आए, हमें स्टेज के पीछे से क्या मतलब है?

फिर मैंने देखा कि वे जवाब न देंगे। असल में उन्हें भी स्टेज के पीछे का पता न होगा। स्टेज के पीछे का किसको पता है? स्टेज के पीछे का किसी को पता नहीं कि पीछे क्या होता है। राम जहां से आते हैं, रावण जहां से आते हैं, वहां का किसको पता है? पीछे क्या होता है, किसी को पता नहीं। तो फिर मैंने सोचा–इनकी फिकर छोड़ो। बड़े-बूढ़ों की कब तक फिकर करेंगे! नहीं तो हम भी बड़े-बूढ़े हो जाएंगे और छोटे बच्चों को समझाने लगेंगे कि तुम्हें क्या मतलब है स्टेज के पीछे से! तुम स्टेज के सामने देखो, जहां हम देखने आए हैं।

मैंने उनका साथ छोड़ा और भाग कर मैं पीछे गया और मैंने जाकर पर्दा उठा कर अंदर झांक कर देखा। मैं दंग रह गया! फिर उस दिन से मैंने रामलीला नहीं देखी। उस दिन से बात ही खत्म हो गई। मैंने वहां देखा कि रामचंद्र जी सिगरेट पी रहे हैं और रावण जो हैं वह सिगरेट जला रहे हैं। तो फिर मैं घर लौट आया और मैंने सोचा कि जब इस रामलीला के पर्दे के पीछे ऐसा हो रहा है तो असली रामलीला के पर्दे के पीछे भी कौन जानता है!

यह सब गंभीरता, यह सब पर्दे के बाहर है। जिंदगी पीछे कुछ और है। अगर परमात्मा कहीं भी है तो मैं सोच भी नहीं पाता कि वह उदास होगा। और अगर परमात्मा भी उदास होगा तो फिर हंसेगा कौन? मैं सोच भी नहीं पाता कि परमात्मा भी गंभीर होगा। अगर वह गंभीर होता तो इस संसार का कभी का उसने अंत कर दिया होता। क्योंकि सब महात्मा इसका अंत करने के लिए बड़े आतुर हैं। वे कहते हैं, आवागमन से छुटकारा मांगो। सारे महात्माओं की एक ही शिकायत है कि संसार क्यों बनाया भगवान! बहुत मुसीबत तुमने की। किसी तरह इसको मिटाओ, किसी तरह हमको वापस बुलाओ, हम नहीं चाहते यह। सारे महात्मा एक ही खोज में लगे हैं कि यह संसार कैसे मिट जाए!

तो निश्चित ही परमात्मा उदास नहीं हो सकता। वह अभी खेल से थका भी नहीं है। वह खेल को जारी रखे है। वह रोज नया खेल बनाए चला जा रहा है। वह खेलने में बड़ा रसलीन मालूम होता है। और ऊबता भी नहीं है; ऊबता भी नहीं है।

एक बूढ़े चित्रकार से मैं मिलने गया था। वे बूढ़े हो गए हैं। और मैंने उनसे कहा, अब आप चित्र नहीं बना रहे हैं? उन्होंने कहा, अब मैं ऊब गया। बहुत चित्र मैंने बनाए, थक गया, अब क्या बनाऊं बार-बार! आदमी बनाए, वृक्ष बनाए, नदी-पहाड़ बनाए, अब मैं थक गया। मैंने कहा कि तुम बड़े जल्दी थक गए। और भगवान कितने दिन से वृक्ष बना रहा है, आदमी बना रहा है, नदी-पहाड़ बना रहा है, अभी तक नहीं थका! अदभुत है उसकी क्षमता! थकता ही नहीं। उदास होता तो कभी का थक गया होता, बोरडम हो गई होती, ऊब गया होता। कहता–बंद करो सब अब, अब नहीं चलाना इसे। लेकिन जिंदगी में उसे रस है और जिंदगी को सृजन करने की उसकी क्षमता अनंत है।

नहीं, परमात्मा उदास नहीं है, आदमी उदास है। और आदमी उदास है गंभीरता के कारण। जिंदगी को उसने एक काम बना लिया है, एक खेल नहीं। हम हर चीज को काम में बदलने में इतने कुशल हैं कि हम खेल को भी काम में बदल लेते हैं।

जिंदगी का राज थोड़ी देर से बता दूंगा, अभी तो मुझे बहुत प्यास लगी। देखता नहीं, कितनी जोर की धूप है। तू जरा एक गिलास पानी कहीं से ले आ।

वह युवा खोजी पानी लेने गया। वह गांव के भीतर गया। उसने जाकर एक द्वार पर दस्तक दी। दोपहर थी, सन्नाटा था, सारे लोग सोए थे। एक सुंदर युवती ने द्वार खोला, उसका पिता बाहर था। वह युवक आया था कि पानी ले लेना है, लेकिन एक नयी प्यास जग गई। और दूसरे की प्यास से अपने को क्या मतलब! वह जो सामने सुंदर युवती खड़ी थी उसने एक नयी प्यास जगा दी। उस युवती ने पूछा, आप कैसे आए? उसने कहा, तुम्हारे लिए आया हूं। तुम्हारे लिए भटक रहा हूं। तुम्हें खोजता था। उसने कहा, आप मेरे लिए आए हैं? मुझे तो आप पहचानते भी नहीं! उसने कहा, पहचानता तो नहीं था, लेकिन किसी अनजाने कोने में मन में तुम्हारी ही तलाश थी। बस अब तुम मिल जाओ तो सब मिल जाए, अन्यथा सब खो गया। तब तक पिता लौट आया, युवक तो सुंदर था, युवा था, उसने शादी कर दी। वे दोनों रहने लगे।

वह भगवान प्यासा खड़ा होगा धूप में, उसकी खबर भूल गई। जब अपनी प्यास जग जाए तो दूसरे की प्यास की खबर किसको रह जाती है!

फिर उनके बच्चे हो गए। फिर बच्चे बड़े हो गए। फिर शादी-विवाह हो गया बच्चों का। फिर बच्चों के भी बच्चे हो गए। फिर वह आदमी बिलकुल बूढ़ा हो गया, वह मरने के करीब हो गया। तब गांव में जोर की बाढ़ आ गई। वर्षा आई और गांव की नदी पर पूर चढ़ा और चढ़ता ही चला गया और पूर नीचे न उतरा, सारा गांव डूबने लगा। वह अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को, अपने बेटों को, अपनी बहुओं को, सबको–किस-किस को बचाए; बड़ी जोर का बहाव है, घर डूबा जाता है–वह सबको पकड़ कर बचा कर चलता है। बूढ़ा आदमी है, ताकत भी कम हो गई है। एक को बचाता है, दूसरा छूट जाता है। एक बच्चे को पकड़ता है तो लड़की छूट जाती है, लड़की को बचाने जाता है तो पत्नी छूट जाती है। आखिर में सब छूट जाते हैं, सबको बचाने की कोशिश में सब छूट जाते हैं। सबको बचाने की कोशिश में सिर्फ एक बच रहता है जिसको उसे बचाने का खयाल ही न था। वह खुद ही बच रहता है। रोता है, चिल्लाता है, छाती पीटता है, बेहोश होकर जाकर किनारे पर गिर पड़ता है।

फिर उसे खयाल आता है–कोई उसके सिर पर हाथ रख कर हिला रहा है और कह रहा है, उठो! आंख खोली है, वह भगवान खड़ा है, कहता है, कितनी देर लगा दी! हम प्यासे ही बैठे हुए हैं, पानी नहीं लाए? वह आदमी कहता है, पानी! अभी इतनी बाढ़ थी, इतना पानी ही पानी था, वह कहां है? वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। वह आदमी कहता है, यह हुआ क्या? कितने जमाने बीत गए! सत्तर साल होते होंगे जब मैं गया था छोड़ कर आपको। बूढ़ा हो गया, मरने के करीब हूं। मेरे बच्चे थे, पत्नी थी, बेटे थे, वे सब कहां हैं? बाढ़ थी, वह सब कहां है? वह भगवान कहता है, मुझे क्या पता? मैं प्यासा बैठा हूं। देखते नहीं सूरज, दोपहरी तेज है। पानी कहां है? पानी नहीं लाए!

वह जिज्ञासु पैरों पर सिर रख देता है और कहता है, राज मैं समझ गया, जिंदगी का राज मैं समझ गया, अब बताने की और कोशिश न करें।

जिंदगी एक खेल है और एक खेल जो सपने में खेला गया है। इसमें इतने गंभीर होने की जरूरत नहीं।

इस संबंध में जो भी प्रश्न हों वे सांझ। सुबह के जो प्रश्न हों वे सुबह।

आदमी नया चाहिए, तो नये समाज का जन्म हो सकता है। सारी क्रांतियां असफल गईं, क्योंकि क्रांतियों ने समाज पर ध्यान दिया, मनुष्य पर नहीं। वही क्रांति सफल हो सकती है जो मनुष्य को केंद्र में ले और मनुष्य के पुराने मन को तोड़ कर नया कर सके।

नया मनुष्य नये समाज की खोज का आधार है।




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