नये समाज की खोज -(प्रवचन-२) सुख की नींव पर
मेरे प्रिय आत्मन्!
“नये समाज की खोज,’ इस संबंध में तीसरे सूत्र के बाबत पहले कुछ कहूंगा। पीछे आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
आज तक मनुष्य-जाति क्षणिक का विरोध करती रही है और शाश्वत को आमंत्रण देती रही है, क्षुद्र का विरोध करती रही है और विराट को पुकारती रही है। और जीवन का आश्चर्य यह है कि जो विराट है वह क्षुद्र में मौजूद है और जो शाश्वत है वह क्षणिक में निवास करता है। क्षणिक के विरोध ने क्षणिक को भी नष्ट कर दिया है और शाश्वत को भी निकट नहीं आने दिया है।
अमेजान नदी का नाम आपने सुना होगा, दुनिया की सबसे बड़ी नदी है, सबसे ज्यादा जलराशि है। लेकिन जहां से अमेजान निकलती है अगर वहां आप खड़े हो जाएं तो विश्वास न आएगा कि इस जगह से अमेजान निकलती होगी! जहां से अमेजान निकलती है वहां एक-एक बूंद पानी टपकता है पहाड़ी से। और एक-एक बूंद भी सतत नहीं टपकता। एक बूंद गिरती है, फिर बीस सेकेंड लगते हैं दूसरी बूंद के गिरने में। बीस सेकेंड के फासले पर फिर दूसरी बूंद गिरती है।
इस जरा सी खंदक में टपकते इस पानी को देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि विराट अमेजान का यह मूल स्रोत है। और कोई बुद्धिमान पहुंच जाए तो कहेगा–बंद करो यह पानी का टपकना! इससे कहीं सागर बना है! लेकिन सब सागर बूंद-बूंद से बनते हैं।
लेकिन पुराने आदमी ने एक धारणा बना ली थी–और धारणा तर्कयुक्त मालूम पड़ती थी–कि अगर शाश्वत को, स्थायी को खोजना है, तो क्षणिक को छोड़ दो। क्षणिक सुख की दुश्मनी, ताकि हमें वह मिल सके जो शाश्वत है। क्षणिक खो गया, शाश्वत मिला नहीं, और मनुष्य की जिंदगी निरंतर दुख बन गई।
नये मनुष्य का सुख क्षणिक, क्षुद्रतम में भी विराट के, शाश्वत के दर्शन से शुरू हो सकता है। शाश्वत सुख नहीं है, सुख तो सब क्षणिक है। लेकिन जो क्षणिक सुख को जीने की कला सीख जाता है वह शाश्वत सुख में प्रवेश पा जाता है। जो प्रतिपल सुख में जीने की कला सीख जाता है वह धीरे-धीरे सुख की धारा और संगीत में बहने लगता है।
लेकिन जीवन भर दुख से गुजरता हो तो सांझ भी कुरूप हो जाती है। सांझ कुरूप हो ही जाएगी, वह जिंदगी भर का जोड़ है।
मैं समझ पाता हूं कि अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है–जो कि नये समाज के लिए जरूरी है–तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और क्षण में सुख लेने का आदर और अनुग्रह और ग्रेटीटयूड पैदा करना पड़ेगा। हमें यह कहना बंद कर देना पड़ेगा कि सांझ फूल मुरझा जाएगा। सांझ तो सब मुरझा जाएंगे। सांझ तो आएगी, लेकिन सांझ का अपना सौंदर्य है, सुबह का अपना सौंदर्य है और सुबह के सौंदर्य को सांझ के सौंदर्य से तुलना करने की भी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी का अपना सौंदर्य है, मृत्यु का अपना सौंदर्य है। दीये के जलने का अपना सौंदर्य है, दीये के बुझ जाने का अपना सौंदर्य है। चांद की रात ही सुंदर नहीं होती, अंधेरी अमावस की रात का भी अपना सौंदर्य है। और जो देखने में समर्थ हो जाता है वह सब चीजों से सौंदर्य और सब चीजों से सुख पाना शुरू कर देता है।
लेकिन यह क्यों भूल हो गई कि आदमी इतना उदास और दुखी क्यों हमने निर्मित किया?
यह भूल इसलिए हो गई कि हम शरीर के शत्रु हैं। सारी मनुष्यता अब तक शरीर की दुश्मन रही है। इंद्रियों के दुश्मन हैं। और इंद्रियां द्वार हैं जीवन के। इंद्रियों की दुश्मनी की जरूरत नहीं है। इंद्रियों की गुलामी न हो, इतना ही काफी है। इंद्रियों की मालकियत बहुत है। लेकिन इंद्रियों की मालकियत के लिए इंद्रियों से दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं है।
सच तो यह है कि जिसके हम दुश्मन हो जाएं उसके हम मालिक कभी भी नहीं हो पाते। मालिक तो हम सिर्फ उसी के हो पाते हैं जिसे हम प्रेम करते हैं।
इंद्रियों और शरीर की दुश्मनी के कारण एक द्वैत आदमी में हमने पैदा किया है। हमने बताया है कि शरीर कुछ और, इंद्रियां कुछ और, तुम कुछ और; और तुम्हारे और शरीर के बीच सतत दुश्मनी है, लड़ाई है। अब हम अपने ही द्वार-दरवाजों से लड़ रहे हैं। जैसे कोई आदमी एक घर में रहता हो, और अपनी खिड़कियों का दुश्मन हो जाए, अपने दरवाजों का दुश्मन हो जाए, और खिड़कियों और अपने बीच दुश्मनी मान ले। तो जो खिड़कियां खुलती हैं आकाश की तरफ, वह उनसे फिर कभी झांकेगा नहीं।
अच्छा! लेकिन जैसे ही उसे खयाल आया अच्छा–यह मन में ही उसने कहा था–जैसे ही उसे खयाल आया कि लड़की का हाथ पकड़ कर नदी पार करा दूं, उसके सारे मन में विष घुल गया। बीस साल से उसने स्त्री को नहीं छुआ था। जैसे ही खयाल आया कि हाथ पकड़ कर नदी पार करवा दूं, वैसे ही उसके मन में सारी वासना जग गई। उसने अपने को झिड़का कि मैंने कैसे पाप की बात सोची! उसने सिर नीचे झुका लिया। उस लड़की ने बहुत कहा, आप उत्तर नहीं देते हैं? फिर उसने उत्तर भी नहीं दिया। क्योंकि बोलना भी खतरनाक है, वाणी भी कान में चली जाए उसके और मन में रस घुल जाए! तो फिर वह आंख बंद करके, आंख झुका कर नदी पार हो गया तेजी से।
नदी तो पार हो रहा है, लेकिन मन उसका इसी पार रह गया। तभी उसे खयाल आया कि उसका एक युवा साथी भी पीछे आ रहा है, कहीं वह भी इसी गलती में न पड़ जाए। उस पार पहुंच कर उसने लौट कर देखा। हालांकि वह अपने साथी को देख रहा था, लेकिन बहुत गहरे में उसका मन उस लड़की को ही देख रहा था। वह लड़की को देखने का बहाना खोज रहा था।
लेकिन जब उसने पीछे लौट कर देखा तो बहुत घबरा गया। वह युवा साथी उस लड़की को कंधे पर बिठा कर नदी पार करवा रहा था। तब तो आग लग गई। आग दोहरी थी। बहुत गहरे में तो यह आग लगी कि मैं चूक गया; मैं भी कंधे पर बिठा सकता था–बहुत गहरे में।
सभी संन्यासियों के बहुत गहरे में वैसी आग पकड़ती है। इसलिए तो वे गृहस्थों पर बहुत नाराज रहते हैं कि जिनको तुम कंधों पर बिठाए हो, हम नहीं बिठा पाए। इसलिए तो वे गृहस्थों को नरक भेजने के लिए दिन-रात घोषणाएं करते रहते हैं। वे बदला ले रहे हैं कि तुम यहां स्वर्ग में हो, तो हमको कम से कम मरने के बाद स्वर्ग में होने दो।
देखती हैं उतना ही सौंदर्य आत्मा का होने लगता है। और जब आंखें पूरी तरह गहरा देखती हैं तो पत्थर नहीं रह जाता, भीतर से परमात्मा झांकने लगता है।
लेकिन हम इंद्रिय-विरोधी हैं, तो हमें पत्थर ही दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। अगर परमात्मा को देखना है तो इतना गहरा देखना पड़ेगा, गहरे से गहरा, कि कुछ देखने को पीछे शेष न रह जाए। कभी हमने सोचा ही नहीं। आपने कभी रास्ते के किनारे पड़े हुए पत्थर को हाथ में उठा कर स्पर्श किया है? कभी नदी के किनारे बैठ कर रेत को हाथ में लेकर दो क्षण विश्राम से उसको स्पर्श किया है? नहीं किया है। कभी नदी के पानी को चुल्लू में भर कर दो क्षण आंख बंद करके उसे समझने की कोशिश की है? कभी किसी वृक्ष की पीड़ को छाती से लगा कर थोड़ी देर विश्राम किया है? वृक्ष भी कुछ कहता है? नहीं कहता है। चारों तरफ इतना विराट फैला हुआ है, यह चारों तरफ सब तरफ मौजूद है वही!
लेकिन हम तो आदमी का हाथ भी हाथ में लेने से भयभीत हो गए हैं। वृक्ष का हाथ कोई लेगा तो हम उसे पागल कहेंगे। अगर कोई वृक्ष को गले से लगाए हुए मिल जाएगा तो हम कहेंगे–दिमाग खराब हो गया। लेकिन वही आदमी अगर एक मंदिर में थाली लेकर घुमा रहा होगा, पूजा कर रहा होगा, तो हम कहेंगे–धार्मिक हो गया। और जिंदा परमात्मा चारों तरफ मौजूद है उससे वह कभी नहीं मिलता। उसने अपने परमात्मा बनाए हुए हैं। अपने ही हाथ से गढ़ कर बना लिए हैं। अपने ही गढ़े हुए परमात्माओं के सामने वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ है। और उसकी सारी इंद्रियां असमर्थ हो गई हैं, वह कुछ भी अनुभव करने में समर्थ नहीं रह गया है, उसने सारी ग्राहकता खो दी है, संवेदनशीलता खो दी है।
धार्मिक जीवन की बुनियाद है–संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी। कौन कितना संवेदनशील है!
मौलवी निकला, और जैसे कि मौलवी होते हैं, जैसे कि पंडित होते हैं, मौलवी ने बहुत घृणा और क्रोध से उमर खय्याम को देखा, निंदा के भाव से, और कहा कि नरक जाएगा!
उमर खय्याम ने कहा, जब जाऊंगा तब देख लूंगा; लेकिन आप अभी भी नरक में हैं। आएं, काफी है पीने के लिए, थोड़ा पी लें, थोड़ा शांति से बैठें।
उस आदमी ने कहा, क्या कहते हो मुझसे? तुम मौलवी से पीने को कहते हो?
उसने चारों तरफ देखा कि कोई यह न देख ले कि वह उमर खय्याम से बात कर रहा है। नहीं तो पता चल जाए कि उमर खय्याम से बात कर रहा है तो पता नहीं क्या बात कर रहा है।
उसने कहा, तुझे पागल मालूम नहीं है, खय्याम, छोड़ दे शराब! इस जिंदगी में कोई सुख न ले! शराब तो प्रतीक है इस जिंदगी में सुख का। कुछ सुख न ले इस जिंदगी में! तुझे पता नहीं है कि जो इस जिंदगी में सब सुख छोड़ देंगे, परमात्मा ने उन्हें स्वर्ग में सब सुख देने का इंतजाम किया हुआ है। वहां, वहां शराब के चश्मे बह रहे हैं बहिश्त में।
बहिश्त में शराब के चश्मे से मौलवी की जीभ में लार आ गई हो तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जो यहां छोड़ता है वह वहां पाने के लिए बड़ा आतुर रहता है।
उमर खय्याम ने कहा, तुम्हारा परमात्मा बड़ा अजीब है! कहता है, यहां सुख मत लो और वहां हम ज्यादा सुख देंगे अगर यहां सुख छोड़ते हो। कैसा परमात्मा है! कैसा तर्क!
फिर उसने कहा कि होगा, मुझे पता नहीं तुम्हारे झरनों का। मुझे तो यह जो कुल्हड़ में सुख मिल रहा है, मैं इसको लेता हूं, जब झरना होगा तब देखेंगे।
फिर उसने चलते वक्त कहा, मौलवी, एक बात खयाल रखना–हमारी तो आदत रहेगी कुल्हड़ से सुख लेने की तो हम शायद झरने में भी थोड़ा-बहुत सुख ले लेंगे, अगर कभी कोई झरना हुआ। लेकिन तुम्हारी तो कोई आदत ही न होगी, कुल्हड़ से भी तुमने कभी न लिया, झरने से तुम कैसे लोगे? और तुम कुल्हड़ को इतनी निंदा से देख रहे हो, झरने के तो तुम बिलकुल दुश्मन हो जाओगे।
उमर ठीक कहता है। जिंदगी में क्षण-क्षण के कुल्हड़ में सुख आता है। जिंदगी में सब इंद्रियों के द्वार से सुख आपको खटखटाता है। लेकिन उसे इनकार कर देते हैं हम। हम उसे अस्वीकार कर देते हैं। हम अकड़ कर भीतर बैठ जाते हैं कि नहीं, हम यह सुख न लेंगे। इंद्रियों का सुख तो बुरा है, पाप है।
कोई सुख बुरा नहीं है, कोई सुख पाप नहीं है, सिर्फ दुख पाप है। क्यों मैं यह कहता हूं कि दुख पाप है? यह इसलिए कहता हूं कि जो दुख को अंगीकार कर लेता है वह दूसरों को दुख देने का आधार बन जाता है। अगर मैं दुखी हूं तो मैं दुख दूंगा, क्योंकि मैं वही दे सकता हूं जो मेरे पास है। और मैं अगर सुखी हूं तो मैं सुख दूंगा, क्योंकि मैं वही दे सकता हूं जो मेरे पास है। हम उसी को तो बांटते हैं जो हमारे पास है।
आदमी एक-दूसरे को दुख दे रहा है, क्योंकि हर आदमी दुखी है। दुखी आदमी दुख ही दे सकता है। समझाना फिजूल है दुखी आदमी को कि तुम दुख मत दो, वह दुख देगा ही! उसके पास दुख ही है! वह करेगा भी क्या, वह जब भी बांटेगा दुख बांटेगा। हो सकता है वह भी सोचता हो कि मैं सुख बांट रहा हूं, हो सकता है वह यह मानता भी हो कि मैं सुख दे रहा हूं। हो सकता है बेटा सोचता हो, मैं अपनी मां को सुख दे रहा हूं। लेकिन मां को दुख मिल रहा है। हो सकता है पति सोचता हो, मैं अपनी पत्नी को सुख दे रहा हूं। लेकिन पत्नी को दुख मिल रहा है। पत्नी सोचती है, मैं अपने पति की कितनी सेवा कर रही हूं, कितना सुख दे रही हूं। और पति की जान संकट में पड़ी हुई है। हम देते हुए मालूम पड़ते हैं सुख, लेकिन पहुंचता है दुख। क्योंकि दुख के सिवाय हमारे पास कुछ भी नहीं है।
बैठ गया। उसने कहा, नरक में और पता लगा लें, क्योंकि दो ही तो जगह हैं। जैसे-जैसे नरक के पास पहुंचने लगा, तो बड़ी सुगंध की हवाएं बहने लगीं। वह बड़ा हैरान हुआ कि यह तो उलटा हुआ जा रहा है। कोई तख्ती तो नहीं बदल गई! कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई! कहीं गलत ट्रेन में तो नहीं बैठ गए! कोई टिकट तो गड़बड़ नहीं ले ली! यह हो क्या रहा है? जब वह नरक के पास पहुंचा तो वहां तो लहलहाते हुए बगीचे थे और बहुत फूल खिले थे, और बहुत सुगंध थी, और कहीं वीणा बज रही थी, कहीं लोग नाच रहे थे। उसने कहा, सब गड़बड़ हुआ जा रहा है, यह मामला क्या है!
वह उतर कर नीचे गया। उसने पूछा, यह बात क्या है? यह नरक है? यह तो आंखों पर भरोसा नहीं आता। अभी हम स्वर्ग देख कर आ रहे हैं, वह नरक जैसा मालूम पड़ता था। यह नरक, यह स्वर्ग जैसा मालूम पड़ रहा है। तो जिस आदमी से उसने पूछा था उसने कहा कि हां, यह पहले नरक ही था।
उसने कहा, अब क्या हो गया? अब नहीं है नरक?
उन्होंने कहा, तख्ती तो अब भी नरक की लगी है। लेकिन जब से वे बुद्ध, महावीर और सुकरात इधर आ गए हैं, तब से सब स्वर्ग हो गया है। और जब से वे तुम्हारे पादरी, पुरोहित और पंडित मर-मर कर स्वर्ग पहुंच रहे हैं, उन्होंने सब गड़बड़ कर दिया है। तख्ती पुरानी लगी हैं, लेकिन सब मामला बदल गया है। क्योंकि, उस आदमी ने कहा कि अब नियम बदल गया है। पहले यह नियम था कि अच्छा आदमी स्वर्ग जाता है। अब यह नियम नहीं है। अब नियम यह है कि अच्छा आदमी जहां जाता है वहां स्वर्ग हो जाता है। पहले नियम था कि बुरा आदमी नरक जाता है। अब नियम यह है कि बुरा आदमी जहां जाता है वहीं नरक हो जाता है। अब नियम बदल गए हैं। तुम, दिखता है, पुरानी किताबें पढ़ते थे।
उस पादरी की घबराहट में नींद खुल गई। घंटा बज रहा था नीचे, वक्त हो गया है। अब वह बहुत घबरा गया। और वह नीचे आया और उसने कहा कि भाई, मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। अब मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता। अब मैं इसके संबंध में कुछ कहना ही नहीं चाहता हूं। लोगों ने कहा, वह पिछले उत्तर का क्या हुआ? उसने कहा, उसी उत्तर ने मुझे दिक्कत में डाल दिया है। अब मैं भी सोच रहा हूं कि स्वर्ग जाना कि नरक? जाना कहां है?
हम यहां जिस तरह की जिंदगी जीते हैं, आगे जो जिंदगी है हम उसके आधार यहीं रखते हैं, इसी पृथ्वी पर, इस पृथ्वी के विरोध में नहीं। अगर आत्मा की कोई जिंदगी है तो उसके आधार हम रखते हैं शरीर की जिंदगी में, शरीर के विरोध में नहीं। अगर अतींद्रिय कोई आनंद हैं तो उनके भी आधार हम रखते हैं इंद्रियों के आनंदों में, उसके विपरीत नहीं। जिंदगी विरोध नहीं, जिंदगी एक हार्मनी है। यहां किसी चीज में कोई विरोध नहीं है। न शरीर और आत्मा में विरोध है, न पदार्थ और परमात्मा में विरोध है। यहां किसी चीज में विरोध नहीं है, जिंदगी एक इकट्ठी चीज है।
लेकिन मनुष्य ने अब तक विरोध मान रखा था।
तीसरे सूत्र में मैं आपसे कहना चाहता हूं: क्षण, इंद्रिय, जीवन के सहज-सरल सुखों का विरोध नहीं। उन्हें सहज स्वीकार कर लेना। ताकि जीवन में इतना सुख भर जाए कि दुख देने की क्षमता नष्ट हो जाए। वह अपने से हो जाती है, वह अपने से समाप्त हो जाती है।
और अगर एक बात हो जाए इस पृथ्वी पर कि आदमी दूसरे को दुख देने में उत्सुक न रह जाए तो नये समाज के जन्म होने में देर लग सकती है?
नये समाज का मतलब क्या है? नये समाज की खोज का अर्थ क्या है?
नये समाज की खोज का अर्थ है: ऐसा समाज जहां कोई किसी के दुख के लिए उत्सुक नहीं है; जहां प्रत्येक प्रत्येक के सुख के लिए आतुर है। यह हो सकता है।
और सूत्रों के संबंध में कल बात करूंगा। एक-दो छोटे प्रश्नों के उत्तर दे देने उचित हैं।
एक मित्र ने पूछा है–कल मैंने कहा, कोई आदर्श स्वीकार न करें, तो उन्होंने पूछा है–हिंसा, पाप या झूठ, किसी भी चीज की खोज करना भी तो एक आदर्श हो सकता है।
नहीं, तथ्य को जानना आदर्श नहीं है। तथ्य को जानना तथ्य है।
मेरे पैर में कांटा गड़ा है। इस बात को जानना कि मेरे पैर में कांटा गड़ा है सिर्फ एक तथ्य की खोज है, एक सत्य का बोध है। लेकिन पैर में कांटा गड़ा है और मैं एक किताब पढ़ रहा हूं कि ऐसे रास्ते पर चलना चाहिए जहां कभी पैर में कांटा न गड़े–यह आदर्शों की दुनिया में जीना है। और पैर में कांटा गड़ा है इसीलिए यह किताब पढ़ रहा हूं, ताकि यह पैर का कांटा भूल जाए। हम ऐसे रास्ते का सपना देखें जिस पर कांटे नहीं होते हैं।
आदर्श का अर्थ है: जो नहीं है और होना चाहिए–दैट व्हिच शुड बी–जो होना चाहिए।
तथ्य का अर्थ है: जो है–दैट व्हिच इज़–जो है।
घृणा है, क्रोध है, दुख है, हिंसा है। अहिंसा आदर्श है, अक्रोध आदर्श है। वे हैं नहीं। वे अगर होते तो कोई जरूरत ही न थी उनके संबंध में बात करने की। हिंसा तो तथ्य है, अहिंसा आदर्श है। और मैं यही कल आपसे कहा कि अगर हिंसा को भुलाना हो तो अहिंसा का आदर्श बहुत अच्छा है। फिर भूल सकती है हिंसा; लेकिन मिटेगी नहीं। और अगर हिंसा मिटानी हो तो अहिंसा की बात ही करने की जरूरत नहीं, हिंसा को पूरा पहचानना पड़ेगा।
ज्यादा तुम जिंदा नहीं रह सकते, छह महीने में मर जाओगे। और यह भी पक्का है कि छह महीने में तुम्हारी बीमारी का इलाज अभी खोजा नहीं जा सकता, क्योंकि अभी तो यह बीमारी ही नहीं खोजी गई। तो तुम मरने की तैयारी कर लो। छह महीने बाद तुम मर जाओगे। और अब हम पर कृपा करो, हमें दूसरा काम करने दो। तुम बच नहीं सकते।
उस आदमी ने रास्ते में सोचा कि जब बच ही नहीं सकते तो झंझट छोड़ो। उसने सोचा: छह महीने कुल बचना है तो अब मौज से रह लो, अब क्या फायदा! तो फौरन दर्जी के पास गया और उसने कहा कि छह महीने जिंदा रहना है, दो सौ ड्रेस चाहिए, रोज नयी ड्रेस पहनूंगा। अब क्या फायदा है बार-बार बासी ड्रेस पहनने का! वह तो बहुत दिन जिंदा रहने का खयाल था इसलिए। तो जितना कीमती से कीमती कपड़ा हो, खरीद लिया जाए। और जितनी अच्छी से अच्छी ड्रेस बनती हो, बना ली जाए।
उस दर्जी ने कहा, बड़ी कृपा, आपका नाप ले लूं। उसने नाप लिया, उसने गला नापा। उसने अपने असिस्टेंट को कहा कि लिखो सोलह। उस आदमी ने कहा, गलत! मैं हमेशा चौदह का गला पहनता हूं। उस दर्जी ने कहा, अगर चौदह का गला पहनोगे तो सिर में चक्कर आएगा, दुनिया घूमती हुई मालूम पड़ेगी। उस आदमी ने कहा, क्या कहते हो! उसने उसका गला देखा, वह चौदह का कालर पहने हुए था, गर्दन कसी थी। उस दर्जी ने कहा कि चक्कर आएगा, मैं कहे देता हूं। उसने कहा, तुम कहे क्या देते हो, चक्कर आ ही रहा है। तो कुल मामला इतना ही है! उसने पहला काम किया कि वह कालर फाड़ कर कपड़ा नीचे फेंक दिया। उसने कहा, मरे जा रहे हैं, इलाज करवा-करवा कर मरे जा रहे हैं।
खाट पर पड़ा रहा और पंडित अपने विवाद में पड़े रहे। वह बार-बार चिल्ला कर कहता था कि भाइयो, मैं बिलकुल मरने के करीब हूं, तुम जल्दी संक्षिप्त करो! लेकिन उसकी आवाज ही नहीं सुनाई पड़ती थी। जहां सौ पंडित हों वहां किसी की आवाज कैसे सुनाई पड़ सकती है! कुछ आवाज नहीं सुनाई पड़ती थी।
आखिर उसने अपने चिकित्सकों को कहा कि क्या मैं मर जाऊंगा? ये पंडित तो विवाद में लगे हैं, शास्त्र संक्षिप्त होते ही नहीं!
किसी तरह उन्होंने संक्षिप्त किया। जब वे संक्षिप्त करके लाए तब भी कोई पचास ग्रंथ थे, संक्षिप्त जब उन्होंने किया। उस आदमी ने कहा, तुम पागल हो! लेकिन तब वह कोई अस्सी साल का हो चुका था, उसकी आंखें जवाब दे गई थीं। उसने कहा, अब मैं पढ़ भी नहीं सकता, अब तो तुम मुझे पढ़ कर सुना दो। उन्होंने कहा, पचास ग्रंथ हैं। पूरे हो पाएं न हो पाएं। तो उसने कहा, और संक्षिप्त करो, इतना संक्षिप्त करो कि तुम मुझे पढ़ कर सुना दो।
उन्होंने फिर संक्षिप्त किया, फिर पांच साल लग गए। जब वे गए तब वे एक छोटी सी किताब में सब संक्षिप्त करके ले गए, लेकिन उस आदमी का होश चला गया, सांस तो चल रही थी। चिकित्सकों ने कहा, भई, बहुत देर करके आए। अब वह सुन भी नहीं सकता, उसका होश भी नहीं है। अब तो तुम ऐसा करो कि एक ही नाम उसके कान में जोर से कह दो, शायद सुन ले।
पंडित विवाद करने लगे कि कौन सा नाम कहा जाए–राम कहें, कि अल्लाह कहें, कि बुद्ध कहें, कि महावीर कहें, कि जय जिनेंद्र कहें, कि क्या कहें क्या न कहें! ओम कहें कि आमीन कहें! वे बहुत विवाद में पड़ गए। चिकित्सकों ने कहा, वह मर रहा है, जल्दी कहो! उन्होंने कहा, पहले तय हो जाए तभी हम कुछ कह सकते हैं।
वे तय करते रहे, वह आदमी मर गया। जब वे तय कर पाए तब तक वह मर चुका था। उन्होंने कहा, हमने तय तो कर लिया, वह आदमी कहां है? उन्होंने कहा, उसकी अरथी जा चुकी है।
आदर्शों में, कल में जीने वाला आदमी ऐसे ही नष्ट होता है।
नहीं, जो करना है वह अभी और आज और यहीं। कल पर छोड़ना खतरनाक है, क्योंकि कल है नहीं, जो है वह आज है, अभी है और यहीं है। जो भी करना है। अगर हिंसा को पहचानना है तो अभी पहचान लें, कल के लिए छोड़ना खतरनाक है। क्योंकि हो सकता है कल आप न हों। कल आप होंगे, यह पक्का है? कल का कुछ भी पक्का नहीं है। तो कल के लिए सोचना कि कल अहिंसक हो जाएंगे–गलत है, खतरनाक है। अभी!
लेकिन अभी अहिंसक कैसे होंगे? अभी तो हिंसा ही जानी जा सकती है। यद्यपि जो हिंसा को जान ले वह इसी क्षण अहिंसक हो सकता है। जिसने भी हिंसा को जान लिया वह अहिंसक हो गया। और जिसने क्रोध को जान लिया, घृणा को जान लिया, वह प्रेम को उपलब्ध हुआ। और जिसने अपने अज्ञान को पहचान लिया वह तत्काल ज्ञान के मंदिर में प्रविष्ट हो जाता है।
क्या? किस-किस बात को आप कह रहे हैं कि…नीति है कहां? दस हजार साल से–जब से मनुष्य का इतिहास ज्ञात है–आदमी अनीति में ही जी रहा है। सब तरह की अनीति चल रही है। अब इसको बदलने का सवाल है। और यह बदलेगी तब जब कि हमारी नीति की दृष्टि ही बदले, जब हमारा नैतिक दृष्टिकोण ही बदले। वह नैतिक दृष्टिकोण बदलने के लिए ही मैं कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं वह इसीलिए कह रहा हूं कि यह अगर हमें समझ में आ जाए कि हमने जो मनुष्य का ढांचा तैयार किया था, जो पैटर्न बनाया था, वह गलत सिद्ध हुआ। हमने मनुष्य को जिस तरह से नैतिक बनाने की कोशिश की थी वह भ्रांत सिद्ध हुई। वह सफल नहीं हुई, वह असफल हो गई। अब हमें कुछ मनुष्य के लिए और तरह से सोचना पड़ेगा। और ध्यान रहे, नीति थोपी नहीं जा सकती, नीति विकसित होती है। नीति थोपी नहीं जा सकती, नीति विकसित होती है।
हम नीति को थोपते रहे हैं। झूठ बोलने वाले आदमी को समझा रहे हैं–सच बोलो! हिंसक को समझा रहे हैं–अहिंसक हो जाओ! वही जो मैंने अभी कहा, हम आदर्श थोप-थोप कर आदमी को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। आदमी ठीक नहीं होता।
हमें आदर्श हटा देना पड़े, आदमी जैसा है उसे जानना पड़े, पहचानना पड़े। और उस पहचान, उस ज्ञान से जो क्रांति आए, वह क्रांति शायद जगत में नीति का विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाए।
अब तक नीति नहीं रही है। कभी-कभी कोई एकाध आदमी नैतिक पैदा हो जाता है। अरबों-खरबों लोगों में कभी कोई एकाध आदमी नैतिक हो जाता है। इससे कुछ हल है? करोड़ पौधे हम लगाएं, एक पौधे पर फूल आ जाएं, तो यह कोई माली की प्रशंसा है? कभी कोई एक बुद्ध पैदा हो जाए, कभी कोई एक कृष्ण पैदा हो जाए, कभी कोई एक क्राइस्ट पैदा हो जाए, इससे क्या फर्क पड़ता है! जिनको अंगुलियों पर गिना जा सके, उनसे क्या फर्क पड़ने वाला है!
नहीं, आदमी के साथ कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। हमने जो व्यवस्था दी है, वह व्यवस्था ही शायद आदमी को नैतिक नहीं होने दे रही है। और एक छोटी सी बात आपके खयाल में दे दूं–हमारी समस्त नैतिक धारणाएं सप्रेसिव हैं, दमन करने वाली हैं। इसलिए जिसका हम दमन करते हैं उसका ही विस्फोट होता रहता है। और जीवन दमन से नहीं बदलता, जीवन ज्ञान से बदलता है।
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