नये समाज की खोज - जीवन क्रांति का प्रारंभ - प्रवचन - ३ भय से साक्षात्कार से
मेरे प्रिय आत्मन्!
“नये समाज की खोज’, इस संबंध में तीन सूत्रों पर मैंने बात की है। आज चौथे सूत्र पर बात करूंगा और पीछे कुछ प्रश्नों के उत्तर।
मनुष्य का मन आज तक भय के ऊपर निर्मित किया गया है। सारी संस्कृति, सारा धर्म, जीवन के सारे मूल्य भय के ऊपर खड़े हुए हैं। जिसे हम भगवान कहते हैं, वह भी भगवान नहीं है, वह भी हमारे भय का ही भवन है। है कहीं कोई भगवान, लेकिन उसे पाने के लिए भय रास्ता नहीं है। उसे पाना हो तो भय से मुक्त हो जाना जरूरी है।
भय जीवन में जहर का असर करता है, विषाक्त कर देता है सब। लेकिन अब तक आदमी को डरा कर ही हमने ठीक करने की कोशिश की थी। आदमी तो ठीक नहीं हुआ, सिर्फ डर गया है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक औरत अपने बेटे को लेकर गई थी। उसने उस फकीर को कहा कि यह मेरा बेटा मेरी कुछ सुनता नहीं है, इसे आप थोड़ा डरा दें कि मेरी सुनने लगे। और यह आज्ञा का उल्लंघन करता है और छोटी-छोटी बातों में तर्क-वितर्क करता है। आप थोड़ा भयभीत कर दें ताकि यह ठीक हो जाए।
वह फकीर बहुत अदभुत आदमी था। जैसे ही उसने यह सुना, वह छलांग लगा कर खड़ा हो गया और जोर से उसने हाथ हिलाए, सिर हिलाया, जोर से चीख मारी। बेटा तो घबरा कर भाग गया। मां घबरा कर बेहोश हो गई। और जब मां बेहोश हो गई तो घबरा कर फकीर भी भाग गया। थोड़ी देर बाद जब मां होश में आई, तो फकीर वापस लौट कर अपने तख्त पर बैठ गया। फिर थोड़ी देर बाद पीछे से बेटा लौटा।
उसकी मां ने कहा कि यह आपने क्या किया? लड़का तब भी थर-थर कांप रहा था। फकीर की भी सांस चढ़ गई थी। स्त्री का भी चेहरा बिलकुल फीका हो गया था, जैसे खून चला गया हो। इतना डराने को न कहा था, उस स्त्री ने कहा। उस फकीर ने कहा, जब डराना शुरू होता है तो कहां रुकें, यह भी तो तय करना मुश्किल है। तो उस स्त्री ने कहा, बेटे को डराने को कहा था, मुझे तो डराने को नहीं। फकीर ने कहा, मैं तो बेटे को ही डरा रहा था, तू डर गई। और तू ही नहीं डर गई, जब तू बेहोश हुई तो मैं खुद ही डर कर भाग गया। उस फकीर ने कहा, जब भय आता है तो कौन डरेगा और कौन बचेगा, कहना बहुत मुश्किल है।
उसके मित्रों ने कहा, हम कैसे न रोएं, मौत द्वार पर खड़ी है! थोड़ी देर बाद आपको जहर दे दिया जाएगा। आप घबरा नहीं रहे हैं?
सुकरात ने कहा कि मेरे सामने दो ही विकल्प हैं। या तो मैं मर ही जाऊंगा बिलकुल। और अगर बिलकुल ही मर गया, जैसा कि नास्तिक कहते हैं, अगर बिलकुल ही मर गया तो डरने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि डरने वाला न बचेगा। और या फिर जैसा कि आस्तिक कहते हैं कि आत्मा नहीं मरेगी, मैं नहीं मरूंगा, शरीर ही मरेगा। अगर शरीर ही मरेगा और सुकरात मैं बच ही जाऊंगा, तब तो डर की कोई जरूरत ही नहीं। बहरहाल, सुकरात ने कहा, दो में से एक ही कोई बात हो सकती है। इसलिए डर की कोई भी जरूरत नहीं। या तो बच ही जाऊंगा या मर ही जाऊंगा। बच जाऊंगा, तब डर की कोई जरूरत नहीं है। और मर ही जाऊंगा, तब तो डर की बिलकुल ही जरूरत नहीं है। क्योंकि डरने वाला ही नहीं बचेगा, डराएगा कौन? डरेंगे कैसे?
सुकरात बुद्धिमानी की बात कह रहा है। वह यह कह रहा है कि मृत्यु के बाद क्या है, यह मर कर देख लेना, बचो तो देख लेना। न बचो तो देखने का कोई सवाल ही नहीं है।
लेकिन आदमी जिंदा है और वह पूछ रहा है कि मरने के बाद क्या होगा?
इस पूछने वाले आदमी के भीतर जिंदगी राख हो गई है। यह पूछने वाला आदमी अब मरने की तैयारी कर रहा है, जीने की नहीं। यह पूछने वाला आदमी किसी न किसी गहरे अर्थों में रुग्ण हो गया है।
सिग्मंड फ्रायड ने अपनी एक किताब में एक छोटा सा वाक्य लिखा है जो सभी धार्मिक लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। सिग्मंड फ्रायड ने लिखा है कि जब भी कोई आदमी धर्मगुरुओं के पास पूछने जाता है कि मृत्यु क्या है? पुनर्जन्म क्या है? आगे क्या है? तो समझ लेना चाहिए कि इस आदमी को मानसिक रूप से रुग्णता आ गई।
यह बात ठीक है। यह बात इसलिए ठीक है कि जब तक हम स्वस्थ हैं तब तक हम बीमारी के संबंध में पूछने नहीं जाते। और अगर कोई स्वस्थ आदमी डाक्टर के पास चला जाए और कहे कि जरा जांच कर लें, कोई बीमारी तो नहीं हो गई है! तो समझना कि बीमारी से भी बड़ी बीमारी हो गई है। अब डाक्टर इसका इलाज भी नहीं कर पाएगा।
जब हम आनंद में होते हैं तो हम कभी नहीं पूछते, कभी नहीं पूछते कि जीवन क्यों है। लेकिन जब हम दुख में होते हैं तो हम पूछना शुरू कर देते हैं कि जीवन क्यों है? जीवन का अर्थ क्या है? जब आप आनंद में होते हैं तब आप यह नहीं पूछते कि आनंद का प्रयोजन क्या है। लेकिन जब दुख में होते हैं तब जरूर पूछते हैं कि दुख का क्या प्रयोजन है? जीवन में दुख क्यों है? क्यों, भविष्य के क्यों, जीवन के चरम अर्थ के संबंध में पूछे गए क्यों, रुग्ण चित्त की खबर देते हैं।
लगेंगे कि कोई बात नहीं।
और अक्सर ऐसा होता है कि घरों में गीता के कवर के भीतर जो किताबें रखी हैं, वे गीता नहीं हैं, अक्सर यह होता है। क्योंकि गीता कौन पढ़ना चाहता है! जो पढ़ना चाहता है उसे कोई पढ़ने नहीं देता। तो गीता का कवर काम देता है। गीता का कवर, भीतर कुछ और है। उसको पढ़ रहे हैं आनंद से। अगर किसी को गीता बहुत आनंदित पढ़ते देखें तो थोड़ा पास चले जाना, इतना आनंदित हो रहा है, कवर के भीतर कुछ और होने का डर है।
मैंने सुना है, एक शब्दकोश बेचने वाला एक एजेंट एक घर के सामने गया है और उसने उसकी गृहिणी को कहा है कि मैं यह डिक्शनरी बेचता हूं, बहुत अच्छी है, आप खरीद लें। उस गृहिणी ने कहा, हमारे पास डिक्शनरी है–बचाव के लिए–कोई हमें जरूरत नहीं है। उसने कहा, कहां है डिक्शनरी? तो उसने, गृहिणी ने दूर टेबल पर रखी एक किताब बताई। उस एजेंट ने कहा, क्षमा करिए, वह डिक्शनरी नहीं है, वह धर्मग्रंथ मालूम होता है। उस स्त्री ने कहा कि हद हो गई बात! धर्मग्रंथ तुम कैसे इतनी दूर से पहचान रहे हो? न तो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है यहां से, न तुम पढ़ सकते हो; तुम कैसे पहचानते हो कि धर्मग्रंथ है? मैं कहती हूं कि वह डिक्शनरी ही है। उस आदमी ने कहा कि मैं कहता हूं वह धर्मग्रंथ है। उस स्त्री ने कहा, लेकिन पहचानते कैसे हो? उसने कहा, उस पर जमी हुई धूल सब खबर दे रही है। डिक्शनरी पर इतनी धूल नहीं जम सकती है; बच्चे उलटते-पलटते रहेंगे। वह धर्मग्रंथ है जिसको कोई कभी नहीं उलटता-पलटता, उस पर धूल जम गई है। वह धूल बता रही है कि वह डिक्शनरी नहीं है।
सच में ही वह डिक्शनरी नहीं थी, वह धर्मग्रंथ ही था।
है। हो सकता है, पड़ोसी आदमी इसीलिए हंसता हो कि उदासी पता न चल जाए। अधिक लोग इसीलिए हंसते हैं कि उदासी पता न चल जाए, हंसते रहते हैं। दूसरे को भी धोखा देते हैं, अपने को भी धोखा देते हैं कि भीतर की उदासी न छलक जाए! दूसरे आदमी के भीतर का हमें पता नहीं, उसकी ऊपर की शक्ल दिखाई पड़ती है।
एक आदमी अकड़ कर शान से चलता है, तो हम सोचते हैं बड़ा बहादुर होगा। असल में डरे हुए लोग ही अकड़ कर चलते हैं। नहीं तो अकड़ कर चलने की कोई जरूरत नहीं है। अकड़ कर कोई चलता हो तो भीतर डरा हुआ आदमी है।
मैं एक स्कूल में पढ़ता था। मेरे एक शिक्षक थे। वे पहले ही दिन आए, तो उन्होंने सोचा… आमतौर से शिक्षक सोचते हैं कि पहले दिन ही ठीक से रोब-दाब कायम कर देना चाहिए बच्चों पर। तो उन्होंने आते ही से कहा कि मैं किसी से कभी डरता नहीं हूं। और जो भी मुझसे उलझेगा वह मुश्किल में पड़ जाएगा। यहां तक कि अंधेरी रात में मैं मरघट पर चला जाता हूं।
मैं तो छोटा ही था। मैंने उनसे खड़े होकर कहा कि आप जो कह रहे हैं इससे पता चलता है कि आप बहुत डरे हुए आदमी हैं। इसकी बताने की जरूरत क्या है कि आप मरघट पर अकेले चले जाते हैं? चले जाते हैं, बड़ा अच्छा है, सभी अकेले जाएंगे; आप अभी जाने लगे, कुछ लोग पीछे जाएंगे। इसमें बताने की क्या बात है? जब आप बता रहे हैं कि मरघट पर अकेला चला जाता हूं, तो मैं पक्का मानता हूं आप मरघट पर अकेले नहीं जा सकते। यह जो आपको लग रहा है कि बड़ी बहादुरी का काम कर रहा हूं, यह बहादुरी का काम लग ही इसलिए रहा है कि कमजोर आदमी हैं, भयभीत आदमी हैं। इसमें कौन सी बहादुरी है कि मरघट पर अकेले चले जाते हैं? इसको आप याद क्यों कर रहे हैं? और आते ही से आपने यह कहा कि मैं बहुत खतरनाक आदमी हूं, मुझसे सब डरना। उससे आपका डर पता चलता है, और कुछ भी पता नहीं चलता।
हम दूसरे के चेहरे को भी नहीं पहचान पाते न, क्योंकि हम अपने चेहरे पर भी धोखे में पड़ गए हैं। दूसरे के चेहरे पर तो और भी धोखे में पड़ गए हैं। वहां भी बहुत दूसरी लैंग्वेज लिखी है, चेहरे पर दूसरी भाषा लिखी है। भीतर कुछ और है, चेहरे पर भाषा कुछ और है। क्योंकि चेहरा हमें लोगों को दिखाने के लिए बनाना पड़ता है। वह हमारा शो-केस है, वह हमारी असली स्थिति नहीं है। वह हमारा ड्राइंगरूम है, वह हमारा घर नहीं है। इसलिए ड्राइंगरूम के भीतर किसी के जाना अशिष्टता है। ड्राइंगरूम में ही रुकना चाहिए, भीतर कभी नहीं झांकना चाहिए। क्योंकि ड्राइंगरूम में बेचारे ने किसी तरह टीम-टाम कर ली है। कहीं से सोफा ले आया है, कहीं से चद्दर ले आया है, कहीं से फोटो लटका ली है। ड्राइंगरूम में उसने किसी तरह एक चेहरा बना लिया है बाहर की दुनिया के लिए। उस बाहर की दुनिया को वहीं ड्राइंगरूम से विदा कर देता है।
भयभीत जानना बहुत बड़ी हिम्मत की बात है, छोटी हिम्मत की बात नहीं है।
यह जान लेना कि यह रहा पाप–और मैं पाप हूं–बहुत बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि मैं जैसा हूं उसे वैसा ही जान लेना बड़ा दुस्साहस है, बड़ा एडवेंचर है। छाती दुखेगी, चारों तरफ से मन करेगा कि नहीं, मैं ऐसा नहीं हूं, बचने की कोशिश चलेगी। लेकिन अगर मैंने कोई कोशिश न की और जान लिया कि ऐसा मैं हूं! इस तथ्य को पहचान लेना पहला कदम है जीवन के रूपांतरण का।
और जैसे ही इस तथ्य को पहचाना, फिर इस तथ्य के साथ रहना। भागना मत, उपाय मत करना कि मैं भयभीत हूं, तो मैं ताकतवर कैसे हो जाऊं? मैं भयभीत हूं, तो मैं कौन सा ताबीज खरीदूं कि मेरा भय चला जाए? मैं भयभीत हूं, तो मैं किस गुरु को पकडूं कि निर्भय हो जाऊं?
नहीं, लिव विद दि फैक्ट। वह जो है तथ्य उसके साथ जीना, जानना कि मैं भयभीत हूं, जानना कि मैं घृणा से भरा हूं, जानना कि मैं क्रोधी हूं, और रहना इसके साथ; क्योंकि भागने का कोई उपाय नहीं है, यही मैं हूं। और अगर एक आदमी एक दिन भी अपने तथ्य के साथ रह ले, तो उसे अपने भीतर के पूरे नरक का बोध होगा, अपने पूरे तथ्य उसे दिखाई पड़ेंगे। और उसे लगेगा नरक कहीं जमीन में, पाताल में नहीं, यहां मेरे भीतर है।
कोई बीज पड़ जाता है, फूल खिल जाता है। लेकिन नाला अकड़ कर कहता है, मैं तो फूल ही फूल हूं। यह नाला तो कभी-कभी हो जाता हूं, ऐसे तो फूल ही फूल हूं। ऐसे ही हम हैं। चौबीस घंटे में शायद एक क्षण को भी कभी प्रेम का फूल खिलता हो; लेकिन हम मानते यह हैं कि हम प्रेम हैं। और जब क्रोध और घृणा चौबीस घंटे चलते हैं तो हम मानते हैं कि ये कभी-कभी हो जाते हैं।
व्यक्ति को अपने तथ्य को जानना व्यक्ति के जीवन में क्रांति की शुरुआत है। और सबसे गहरा तथ्य है भय का! भय को ठीक से जान लेना और उसके साथ जीना! जिस दिन भय की लपटें पूरी दिखाई पड़ेंगी, व्यक्ति छलांग लगा कर बाहर हो जाता है।
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