स्वयं से प्रेम करो
"हम गौतम बुद्ध के एक बहुत ही गहन सूत्र से आरम्भ करते हैं: 'स्वयं से प्रेम करो..."संसार की सभी परम्पराओं द्वारा, सभी सभ्यताओं, सभी संस्कृतियों, सभी चर्चों द्वारा तुम्हें इसके विपरीत शिक्षा मिली है। वे कहती हैं: "दूसरोँ से प्रेम करो, स्वयं से नहीं।" और उनकी इस शिक्षा के पीछे एक चालाक रणनीति है।
"प्रेम आत्मा का पोषण है। बिलकुल वैसे जैसे शरीर के लिए भोजन है, आत्मा के लिए प्रेम है। भोजन के आभाव में शरीर दुर्बल होता है, प्रेम के अभाव में आत्मा दुर्बल होती है। और किसी राष्ट्र, किसी चर्च, किसी स्वार्थी व्यक्ति ने कभी नहीं चाहा की लोगों के पास बलशाली आत्मा हो, कयोंकि एक आध्यात्मिक ऊर्जा वाला व्यक्ति अनिवार्य रूप से विद्रोही होता है।
"प्रेम तुम्हें विद्रोही बनाता है, क्रान्तिकारी बनाता है। प्रेम तुम्हें ऊंची उड़ान भरने के लिए पंख देता है। प्रेम तुम्हें चीज़ों के भीतर देखने की अंतर्दृष्टि देता है, ताकि कोई तुम्हें धोखा ना दे सके, तुम्हारा शोषण न कर सके, तुम्हें दबा ना सके। और पंडित और नेता केवल तुम्हारा खून चूसने पर जिन्दा हैं--उनका जीवन केवल तुम्हारे शोषण पर निर्भर है। सभी पंडित और राजनेता परजीवी हैं।
"तुम्हें आध्यात्मिक रूप से दुर्बल करने के लिए उन्होंने सौ प्रतिशत गारंटी वाला एक पक्का उपाय ढूंढ लिया है, वे तुम्हें सीखा रहे हैं कि तुम स्वयं से प्रेम न करो। यदि कोई व्यक्ति स्वयं से कर सकता तो वह किसी और से भी प्रेम नहीं कर सकता। यह शिक्षण बहुत ही कपट भरा है। वे कहते हैं कि "दूसरोँ से प्रेम करो," क्योंकि वे जानतें हैं कि यदि तुम स्वयं से प्रेम नहीं कर सकते तो तुम बिलकुल भी प्रेम नहीं कर सकते। पर वे कहते चले जाते हैं कि "दूसरों से प्रेम करो, मानवता से प्रेम करो, ईश्वर से प्रेम करो, प्रकृति से प्रेम करो, अपनी पत्नी, अपने पति, अपने बच्चों, अपने माता-पिता से प्रेम करो, पर स्वयं से प्रेम ना करो"--क्योंकि उनके अनुसार स्वयं से प्रेम करना स्वार्थ होता है।
वे स्वयं से प्रेम की इतनी निंदा करते हैं जैसे किसी और बात की नहीं--और उन्होंने अपनी इस शिक्षा को बहुत तर्कपूर्ण बना दिया है। वे कहते हैं कि "यदि तुम स्वयं से प्रेम करोगे तो तुम अहंकारी हो जाओगे, यदि तुम स्वयं से प्रेम करोगे तो नार्सिस्टिक हो जाओगे।" यह सत्य नहीं है। वह व्यक्ति जो स्वयं से प्रेम करता है अपने भीतर कोई अहंकार नहीं पाता। यह तो जब तुम स्वयं को प्रेम किए बिना दूसरे से प्रेम करने की चेष्टा करते हो तब अहंकार पैदा होता है।
"मिशनरीज़, समाज-सुधारकों, समाज-सेवकों के पास संसार में सबसे अधिक अहंकार होता है--यह स्वाभाविक है, क्योंकि वे अपने आप को श्रेष्ठजन मानतें हैं। वे साधारण नहीं है: साधारण लोग तो स्वयं से प्रेम करते हैं; वे दूसरों से प्रेम करते हैं, वे बड़े-बड़े आदर्शों से प्रेम करतें हैं, वे ईश्वर को प्रेम करते हैं। और उनका सब प्रेम झूठ है, क्योंकि उनका सब प्रेम बिना किन्हीं जड़ों के है। वह व्यक्ति जो स्वयं से प्रेम करता है, सच्चे प्रेम की दिशा में पहले कदम लेता है।"
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