Manushya Ko Kya Ho Gaya Hai..?

यह क्या हो गया है मनुष्य को? यह क्या हो गया है?

मैं आश्चर्य में हूं कि इतनी आत्मविपन्नता, इतनी अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं! मैं मनुष्य की आत्मा को खोजता हूं, तो केवल अंधकार ही हाथ आता है, और मनुष्य के जीवन में झांकता हूं, तो सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। जीवन है, लेकिन जीने का भाव नहीं। जीवन है, लेकिन एक बोझ की भांति। वह सौंदर्य, समृद्धि और शांति नहीं है। और आनंद न हो, आलोक न हो तो निश्चय ही जीवन नाम-मात्र को ही जीवन रह जाता है।
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क्या हम जीवन को जीना ही तो नहीं भूल गए हैं? पशु, पक्षी और पौधे भी हमसे ज्यादा सघनता, समृद्धि और संगीत में जीते हुए मालूम होते हैं। लेकिन शायद कोई कहे कि मनुष्य की समृद्धि तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है- फिर भी आप यह क्या कह रहे हैं? उत्तर में मैं कहूंगा- ‘परमात्मा मनुष्य को उसकी तथाकथित समृद्धि से बचाए। वह समृद्धि नहीं, बस केवल दरिद्रता और दीनता को भुलाने का उपाय है। यह समृद्धि, शक्ति और प्राप्ति सब स्वयं से पलायन है।’
मैं, समृद्धि के वस्त्रों को उतारकर, जब मनुष्य को देखता हूं तो उसकी आंतरिक दरिद्रता को देखकर हृदय बहुत विषाद से भर जाता है। क्या इस दरिद्रता को छिपाने और विस्मरण करने के लिए ही हम समृद्धि को नहीं ओढ़े हुए है ।

जो थोड़ा-सा भी विचार करेगा, वह सहज ही इस सत्य से परिचित हो जाएगा। आत्महीनता से पीड़ित व्यक्ति पद को खोजते हैं, और आत्मदरिद्रता से ग्रसित धन और संपदा को। भीतर जो है, उससे पलायन करने को उसके विपरीत ही हम बाहर स्वयं को निर्मित करने लगते हैं। अहंकारी विनीत बन जाते हैं और अतिकामी ब्रह्मचर्य और साधुता में स्वयं को भुला लेना चाहते हैं।
मनुष्य जो भीतर होता है, साधारणतः ठीक उससे विपरीत ही वह बाहर स्वयं को प्रकट करता है। इसलिए ही दरिद्र संपदा को खोजते हैं और जो संपदाशाली होते हैं, वे दरिद्रता को वरण कर लेते हैं! क्या आपने दरिद्रों को सम्राट और सम्राटों को दरिद्र होते नहीं देखा है

इसलिए यह न कहें कि मनुष्य की समृद्धि बढ़ गई। वस्तुओं की समृद्धि तो बढ़ी है पर मनुष्य की समृद्धि नहीं। वह और भी दरिद्र हो गया है। स्मरण रहे कि बाह्य समृद्धि को बढ़ाने की पागल दौड़ में वह निरंतर और भी दरिद्र ही होता जाएगा। क्योंकि इस दौड़ में वह यह भूलता ही जा रहा है कि एक और प्रकार की समृद्धि भी है, जो बाहर नहीं, स्वयं के भीतर ही उपलब्ध की जाती है। वस्तुओं का बढ़ता जाना ही एकमात्र विकास नहीं है। एक और विकास भी है जिसमें स्वयं मनुष्य भी बढ़ता है। निश्चय ही वही विकास वास्तविक है, जिसमें मानवीय चेतना ऊर्ध्वगमन करती है और प्रगाढ़ता, सौंदर्य, संगीत और सत्य को उपलब्ध होती है।
मैं आप से ही पूछना चाहता हूं कि क्या आप वस्तुओं के संग्रह से ही संतुष्ट होना चाहते हैं, या कि चेतना के विकास की भी प्यास आप के भीतर है जो मात्र वस्तुओं में ही संतुष्टि सोचता है वह अंततः असंतोष के और कुछ भी नहीं पाता है, क्योंकि वस्तुएं तो केवल सुविधा ही दे सकती हैं, और निश्चय ही सुविधा और संतोष में बहुत भेद है। सुविधा कष्ट का अभाव है, संतोष आनंद की उपलिंध है।
आपका हृदय क्या चाहता है आपके प्राणों की प्यास क्या है आपके श्वासों की तलाश क्या है क्या कभी आपने अपने आपसे ये प्रश्न पूछे हैं यदि नहीं, तो मुझे पूछने दें। यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा- ‘उसे पाना चाहता हूं जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को नहीं रह जाता।’ क्या मेरा ही उत्तर आपकी अंतरात्माओं में भी नहीं उठता है

यह मैं आपसे ही नहीं पूछ रहा हूं, और भी हजारों लोगों से पूछता हूं और पाता हूं कि सभी मानव-हृदय समान हैं और उनकी आत्यंतिक चाह भी समान ही है। आत्मा आनंद चाहती है- पूर्ण आनंद, क्योंकि तभी सभी चाहों का विश्राम आ सकता है। जहां चाह है, वहां दुःख है क्योंकि वहां अभाव है।
आत्मा सब अभावों का अभाव चाहती है। अभाव का पूर्ण अभाव ही आनंद है और वह स्वतंत्रता भी है, मुक्ति भी, क्योंकि जहां कोई भी अभाव है, वहीं बंधन है, सीमा है और परतंत्रता है। अभाव जहां नहीं है, वहीं परममुक्ति में प्रवेश है।

आनंद मोक्ष है और मुक्ति आनंद है। निश्चय ही जो परम आकांक्षा है, वह बीजरूप में प्रत्येक में प्रसुप्त होनी चाहिए; क्योंकि, जिस बीज में वृक्ष न छिपा हो, उसमें अंकुर भी नहीं आ सकता है। हमारी जो चरम कामना है, वहीं हमारा आत्यंतिक स्वरूप भी है; क्योंकि स्वरूप ही अपने पूर्ण विकास में आनंद और स्वतंत्रता में परिणत हो सकता है। स्वरूप ही सत्य है और उसकी पूर्ण उपलिंध ही संतोष बनती है। स्वरूप की संपदा को जो नहीं खोजता है, वह विपदाओं को ही संपदाएं समझता रहता है। निश्चय ही बाहर की कोई भी उपलिंध अभावों का अभाव नहीं ला सकती है, क्योंकि बाहर की कोई भी संपत्ति भीतर के अभाव को कैसे भर सकेगी! अभाव आंतरिक है, तो बाहर की किसी भी विजय से उसका भराव नहीं होता है। इसलिए सब पाकर भी कुछ भी पाया-सा प्रतीत नहीं होता है, और बाहर सब होकर भी व्यक्ति भीतर रिक्त ही बना रहता है।

बुद्ध ने कहा है- ‘तृष्णा दुष्पूर है।’

कैसा आश्चर्य है कि चाहे हम कुछ भी पा लें, फिर भी पाने पर जो प्रतीत होता है, वह उतना ही रहता है जितना पाने के पूर्व था। इसलिए सम्राटों और भिखारियों का अभाव समान ही होता है। उस तल पर उनमें कोई भी भेद नहीं है।
फिर, बाह्य संगीत की दिशा में जो मिला हुआ भी मालूम होता है, उसकी भी कोई सुरक्षा नहीं है, क्योंकि किसी भी क्षण वह छिन सकता या नष्ट हो सकता है। अंततः मृत्यु तो उसे छीन ही लेती है। जो छीना जा सकता है, उसे हमारे अंतर्हृदय कभी भी अपना न मान पाते हों तो आश्चर्य ही क्या! इसलिए ही संपत्ति सुरक्षा नहीं देती है, हालांकि हम उसे सुरक्षा के लिए खोजते हैं। उल्टे हमें ही उसकी सुरक्षा करनी होती है।
यह ठीक से समझ लें कि बाह्य संपत्ति, सुविधाओं और शक्तियों से न अभाव मिटता है, न असुरक्षा मिटती है, न भय मिटता है। उनके मिथ्या आश्वासन में ज्यादा से ज्यादा व्यक्ति उन्हें भूला भर रह सकता है। इसलिए ही संपत्ति को मद कहा है। उसकी मादकता में जीवन की वास्तविक स्थिति के दर्शन नहीं हो पाते हैं और अभाव का इस भांति विस्मरण अभाव से भी बुरा है, क्योंकि उसके कारण अभाव को मिटाने की वास्तविक दिशा में दृष्टि नहीं उठ पाती है।

जीवन में जो अभाव है, वह किसी वस्तु, शक्ति या संपदा के न होने के कारण नहीं है, क्योंकि उन सबों के मिल जाने पर भी उसे मिटते नहीं देखा जाता है। जिनके पास सब कुछ है, क्या उनकी दरिद्रता से आप परिचित नहीं हैं आपके पास जो कुछ है, क्या उससे जरा भी आपकी दरिद्रता और दीनता मिटी है संपत्ति में और संपत्ति के होने में बहुत भेद है। बाहर की संपत्ति, शक्ति, सुरक्षा- सभी उस वास्तविक संपत्ति की छायाएं-भर हैं जो भीतर है।

अभावों का मूल कारण बाहर की किसी उपलिंध का होना नहीं, वरन स्वयं की दृष्टि का बाहर होना है। इसलिए जो अभाव कुछ पाकर नहीं मिटते हैं, वे ही दृष्टि के भीतर मुड़ने पर पाए ही नहीं जाते हैं। आत्मा का स्वरूप ही आनंद है, वह उसका कोई गुण नहीं, वरन उसका स्वरूप ही है। आत्मा का आनंद से कोई संबंध नहीं है, वस्तुतः आत्मा ही आनंद है। वे दोनों एक ही सत्य के नाम हैं। सत्ता की दृष्टि से जो आत्मा है, अनुभूति की दृष्टि से वही आनंद है।
लेकिन, उस आनंद को आत्मा मत समझ लेना जिसे साधारणतः ‘आनंद’ कहा जाता है। वह ‘आनंद’आनंद नहीं है, क्योंकि आनंद के मिलते ही फिर आनंद की सब खोज बंद हो जाती है। जिसके मिलने से खोज और बढ़ती है, जिसके पाने से तृष्णा और प्रबल होती है, जिसे पाकर जिसके खोने का भय पीड़ित करता है, वह आनंद का मिथ्या आभास है, आनंद नहीं! निश्चय ही वह जल, जल नहीं है, जिससे प्यास और भी बढ़ जाती हो।

क्राइस्ट का वचन है : ‘आओ, मैं उस कुएं का पानी तुम्हें दूं, जिसे पीने से प्यास सदा को मिट जाती है।’हम सुख को ही आनंद समझ लेते हैं जबकि सुख आनंद का आभास-मात्र है, छाया और परछाइ है। इस आभास और भ्रम में ही अधिक लोग जीवन को गंवा देते हैं और अंततः अतृप्ति और असंतोष के और कुछ भी उन्हें हाथ नहीं लगता है। निश्चय ही यदि कोई मनुष्य झील के पानी में चांद के प्रतिबिंब को देख उसे खोजने को निकल पड़े तो अंततः वह क्या पा सकेगा
वस्तुतः उसकी खोज उसे जितना ज्यादा झील की गहराई में डुबाएगी उतना ही ज्यादा वह वास्तविक चांद से दूर निकलता जाएगा। सुख की खोज में ऐसे ही व्यक्ति आनंद से दूर निकल जाते हैं। सुख को खोजते-खोजते जो मिलता है वह सुख नहीं, दुःख ही होता है। क्या जो मैं कह रहा हूं उसकी सच्चाई आपको दिखाई नहीं पड़ती है क्या आपका स्वयं का जीवन-अनुभव इस सत्य की गवाही नहीं है कि सुख की खोज अंततः दुःख के तट पर ले आती है
यही स्वाभाविक भी है, क्योंकि कोई परछाइ या प्रतिबिंब केवल अपने बाह्य रूप में ही मूल के समान है। वस्तुतः जो उसमें दिखाई पड़ता है, उससे बिल्कुल भिन्न ही उसमें पाया जाता है। प्रत्येक सुख, आनंद का आश्वासन और आकर्षण देता है, क्योंकि वह आनंद की छाया है। लेकिन उसके पीछे जाने पर कुछ भी नहीं मिलता है, सिवाय असफलता, विषाद और दुःख के; क्योंकि आपकी छाया को पकड़कर भी मैं आपको कैसे पा सकता हूं और फिर, यदि आपकी छाया को पकड़ लूं तो भी मेरी मुट्ठी में क्या कुछ हो सकता है

यह भी स्मरण दिला दूं कि प्रतिबिंब सदा ही विरोधी दिशा में बनते हैं। मैं एक दर्पण के सामने खड़ा हो जाऊं तो दर्पण में जहां मैं दिखाई पड़ रहा हूं वह ठीक उस जगह से विपरीत है जहां मैं हूं। ऐसा ही सुख भी है। वह अपने में मूलतः दुःख है क्योंकि वह आनंद का प्रतिबिंब है, आनंद तो भीतर है, इसलिए सुख बाहर मालूम होता है! आनंद आनंद है, इसलिए सुख वस्तुतः दुःख है।

मैं जो कह रहा हूं, उसे किसी भी सुख का पीछा जान लो। प्रत्येक सुख अनिवार्यतः अंत में दुःख में परिणत हो जाता है और जो अंत में जैसा है, वह वस्तुतः आरंभ में भी वैसा होता है।
हमारे पास आंखें गहरी नहीं होती हैं, इसीलिए जिसके दर्शन प्रारंभ में होने थे, उसके दर्शन अंत में हो पाते हैं। यह असंभव है कि जो अंत में प्रकट हो, वह आरंभ से ही उपस्थित न रहा हो। अंत तो आरंभ का ही विकास है। आरंभ में जो अप्रकट था वही अंत में प्रकट हो जाता है। पर न केवल हमारी आंखें उथला देखती हैं वरन अधिकांशतः तो वे देखती ही नहीं हैं। हम अकसर उन्हीं रास्तों पर बार-बार चले जाते हैं, जिन पर बहुत बार पूर्व में जाकर भी दुःख, पीड़ा और अवसाद को झेल चुके होते हैं। जहां दुःख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया, उसी ओर फिर-फिर जाते हैं। क्यों क्योंकि शायद उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग हमें दिखाई ही नहीं पड़ता है। इसलिए मैंने कहा कि हम न केवल धुंधला और उथला देखते हैं बल्कि हम देखते ही नहीं हैं। बहुत कम लोग हैं जो जीवन में आंखों का उपयोग करते हों।

आंखें तो सबके पास हैं, लेकिन आंखों के होते हुए भी अधिकांश अंधे बने रहते हैं। जिसने स्वयं के भीतर नहीं देखा है, उसने कभी अपनी आंखों का उपयोग ही नहीं किया है। केवल वही कह सकता है कि ‘मैं आंख वाला हूं’ जिसने स्वयं को देखा है; क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं देखता है, वह और क्या देखेगा ?आंखों की शुरूआत स्वयं को ही देखने से होती है और जो स्वयं को देखता है, दूसरे देखते हैं कि उसके चरण सुख की दिशा में नहीं जा रहे हैं। वह व्यक्ति आनंद की दिशा में चलना प्रारंभ कर देता है। सुख की दिशा स्वयं से संसार की ओर है; आनंद की दिशा संसार से स्वयं की ओर है।

– ओशो
[क्रांति सूत्र] —

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