Prem To Jagaran Hai

🥀 प्रेम तो जागरण है 🥀

फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे ।फिर प्रेम से तुम कुछ और समझ गए ।बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है।प्रेम भी ध्यान का एक ढंग है ।फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया ।तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता । तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो ; पत्नी से , बच्चे से , पिता से , मां से,मित्रों से । ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म-जन्म किया है ।ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता ।
ओशो

मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं ।तुम देह की भाषा ही समझते हो ।इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं , तुम अपनी देह की भाषा में अनुवाद कर लेते हो ; वहीं भूल हो जाती है ।प्रेम का मेरे लिए वही अर्थ है जो प्रार्थना का है ।

तुमने कभी एक बात खयाल की ? तुमने कभी सागर में ऐसा देखा कि एक ही लहर उठी हो और सारा सागर शांत हो ? नहीं , ऐसा नहीं होता । तुमने कभी ऐसा देखा, वृक्ष का एक ही पत्ता हिलता हो और सारा वृक्ष मौन खड़ा हो , हवाएं न हों ? जब हिलता है तो पूरा वृक्ष हिलता है । और जब सागर में लहरें उठती हैं तो अनंत उठती हैं , एक लहर नहीं उठती क्योंकि एक लहर तो हो ही नहीं सकती ।
तुम सोच सकते हो कि एक मनुष्य हो सकता है पृथ्वी पर ? असंभव है । एक तो हो ही नहीं सकता । हम तो एक ही सागर की लहरें हैं ,अनेक होने में हम प्रकट हो रहे हैं । जिस दिन यह अनुभव होता है , उस दिन प्रेम का
जन्म होता है ।
प्रेम का अर्थ है : अभिन्न का बोध हुआ ।अद्वैत का बोध हुआ । लहरें तो ऊपर से अलग-अलग दिखाई पड़ ही रही हैं --- भीतर से आत्मा एक है ।

प्रेम का अर्थ है : जब तुम्हें किसी में और अपने बीच एकता का अनुभव हुआ । और ऐसा नहीं है कि तुम्हें जब यह एकता का अनुभव होगा तो एक और तुम्हारे बीच ही होगा ; यह अनुभव ऐसा है कि हुआ कि तत्क्षण पता चलेगा कि सभी एक हैं ।
भ्रांति टूटी तो वृक्ष , पहाड़-पर्वत , नदी-नाले ,आदमी-पुरुष , पशु-पक्षी , चांद-तारे सभी में एक ही कंप रहा है। उस एक के कंपन को जानने का नाम प्रेम है ।

प्रेम प्रार्थना है । लेकिन तुम जिसे प्रेम समझे हो वह तो देह की भूख है ; वह तो प्रेम का धोखा है ;वह तो देह ने तुम्हें चकमा दिया है ।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां 
भूखी इंद्रियों से भीख !

और किससे तुम मांगते हो भीख , यह भी कभी तुमने सोचा ? -- जो तुमसे भीख मांग रहा है ।भिखारी भिखारी के सामने भिक्षा-पात्र लिए खड़े हैं । फिर तृप्ति नहीं होती तो आश्चर्य कैसा ? किससे तुम मांग रहे हो ? वह तुमसे मांगने आया है । तुम पत्नी से मांग रहे हो , पत्नी तुमसे मांग रही है ; तुम बेटे से मांग रहे हो , बेटा तुमसे मांग रहा है । सब खाली हैं , रिक्त हैं । देने को कुछ भीनहीं है ; सब मांग रहे हैं । भिखमंगों की जमात है ।

मांगती है भूखी इंद्रियां 
भूखी इंद्रियों से भीख 
मान लिया है स्खलन
को ही तृप्ति का क्षण !
नहीं होने देता विमुक्त
इस मरीचका से अघोरी मन
बदल-बदल कर मुखौटा 
ठगता है चेतना का चिंतन 
होते ही पटाक्षेप , बिखर जायेगी 
अनमोल पंचभूतों की भीड़ ।
यह तुमने जिसे अपना होना समझा है ,यह तो पंचभूतों की भीड़ है । यह तो हवा , पानी , आकाश तुममें मिल गए हैं ।यह तुमने जिसे अपनी देह समझा है ,यह तो केवल संयोग है ; यह तो बिखर जाएगा ।तब जो बचेगा इस संयोग के बिखर जाने पर ,उसको पहचानो , उसमें डूबो , उसमें डुबकी लगाओ । वहीं से प्रेम उठता है ।और उसमें डुबकी लगाने का ढंग ध्यान है ।अगर तुमने ध्यान की बात ठीक से समझ लीतो प्रेम अपने-आप जीवन में उतरेगा या प्रेम की समझ ली तो ध्यान उतरेगा --- ये एक ही बात को कहने के लिए दो शब्द हैं ।
ध्यान से समझ में आता हो तो ठीक , अन्यथा प्रेम प्रेम से समझ में आता हो तो ठीक , अन्यथा ध्यान ।लेकिन दोनों अलग नहीं हैं ।

प्रेम का ही विकास , आत्यंतिक विकास ,प्रार्थना है । अगर तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे और किसी के भीतर तुम्हें अपनी ही झलक मिलने लगे तो प्रेम की किरण फूटी । तुम जिसे अभी प्रेम कहते हो , वह तो मजबूरी है ।उसमें प्रार्थना की सुवास नहीं है । उसमें तो भूखी इंद्रियों की दुर्गंध है ।

लहर सागर का नहीं श्रृंगार 
उसकी विकलता है ।
गंध कलिका का नहीं उदगार ,
उसकी विकलता है ।
कूक कोयल की नहीं मनुहार ,
उसकी विकलता है ।
राग वीणा की नहीं झंकार ,
उसकी विकलता है ।
अभी तो तुम जिसे प्रेम कहते हो ,
वह विकलता है । वह तो मजबूरी है ,
वह तो पीड़ा है । अभी तुम संतप्त हो ।
अभी तुम भूखे हो ।
अभी तुम चाहते हो कोई सहारा मिल जाए ।
अभी तुम चाहते हो कहीं कोई नशा मिल जाए ।
इसे मैंने प्रेम नहीं कहा ।
प्रेम तो जागरण है ।
विकलता नहीं , विक्षिप्तता नहीं ।
प्रेम तो परम जाग्रत दशा है ।
उसे ध्यान कहो ।

अगर तुमने प्रेम की मेरी बात ठीक से समझी तो यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि अगर प्रेम से सत्य मिल सकता है तो फिर ध्यान की क्या जरूरत है ? प्रेम से सत्य मिलता है तभी जब प्रेम ही ध्यान का एक रूप होता है , उसके पहले नहीं ।
दूसरी तरह के लोग भी हैं , वे भी आकर मुझसे पूछते हैं कि अगर ध्यान से सत्य मिल सकता है तो फिर प्रेम की कोई जरूरत है ? उनसे भी मैं यही कहता हूं कि अगर तुमने मेरे ध्यान की बात समझी तो यह प्रश्न पूछोगे नहीं । जिसको ध्यान जगने लगा , प्रेम तो जगेगा ही ।

बुद्ध ने कहा है : जहां-जहां समाधि है , 
वहां-वहां करुणा है । करुणा छाया है समाधि की ।
चैतन्य ने कहा है : जहां-जहां प्रेम , जहां-जहां 
प्रार्थना , वहां-वहां ध्यान । ध्यान छाया है प्रेम की ।
ये तो कहने के ही ढंग हैं ।
जैसे तुम्हारी छाया तुमसे अलग नहीं की जा सकती ऐसे ही प्रेम और ध्यान को अलग नहीं किया जा सकता तुम किसको छाया कहते हो ,इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। ये तो पद्धतियां हैं ।
दो पद्धतियां हैं सत्य को खोजने की । जो है , उसे जानने के दो ढंग हैं --- या तो ध्यान में तटस्थ हो जाओ , या प्रेम में लीन हो जाओ ।
या तो प्रेम में इतने डूब जाओ कि तुम मिट जाओ ,सत्य ही बचे ; या ध्यान में इतने जाग जा ओकि सब खो जाए , तुम ही बचो ।
एक बच जाए किसी भी दिशा से ।जहां एक बच रहे , बस सत्य आ गया । कैसे तुम उस एक तक पहुंचे ' मैं ' को मिटा कर पहुंचे कि ' तू ' को मिटा कर पहुंचे ,
इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है ।
लेकिन मन बड़ा बेईमान है ।अगर मैं ध्यान करने को कहता हूं तो वह पूछता है :' प्रेम से नहीं होगा ? ' क्योंकि ध्यान करने से बचने का कोई रास्ता चाहिए ।प्रेम से हो सकता हो तो ध्यान से तो बचें फिलहाल ,फिर देखेंगे ।फिर जब मैं प्रेम की बात कहता हूं ,तो तुम पूछते हो : ' ध्यान से नहीं हो सकेगा ? '
तब तुम प्रेम से बचने की फिक्र करने लगते हो ।तुम मिटना नहीं चाहते --- और बिना मिटे कोई उपाय नहीं ;
बिना मिटे कोई गति नहीं ।

🌹🌹ओशो 🌹🌹

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