नये समाज की खोज - प्रवचन -४ अंतस की बदलाहट ही

 नये समाज की खोज - प्रवचन -४ 

अंतस की बदलाहट ही-(प्रवचन-चौथा)

एकमात्र बदलाहट



मेरे प्रिय आत्मन्!

अच्छा होगा कि मैं आज प्रश्नों के ही उत्तर दूं, क्योंकि बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। संक्षिप्त में ही देने की कोशिश करूंगा ताकि अधिकतम प्रश्नों के उत्तर हो सकें।

एक मित्र ने पूछा है: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?

सूत्र तो जिंदगी में एक ही है–बुरे मत होओ। ये तीनों सूत्र तो बहुत बाहरी हैं। भीतरी सूत्र तो–बुरे मत होओ–वही है। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न देखे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जाएगा। क्योंकि भीतर बुरा होगा! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती। वह भी नहीं मिलेगी। अगर बुरे को बोल लेता तो थोड़ा बाहर निकल जाता, भीतर बुरा थोड़ा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा। अगर बुरे को सुन लेता तो भी थोड़ी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी। भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगा।

नहीं, असली सवाल यह नहीं है। लेकिन आदमी हमेशा बाहर की तरफ से सोचता है। असली सवाल है होने का, असली सवाल करने का नहीं है। मैं क्या हूं, यह सवाल है। मैं क्या करता हूं, यह गौण है। क्योंकि मैं जो हूं, मेरा करना उसी से निकलता है।

लेकिन अब तक की सारी शिक्षाएं मनुष्य पर जोर नहीं देतीं, मनुष्य के करने पर जोर देती हैं। करना गौण है। भीतर मनुष्य क्या है, उससे करना निकलता है। हम जैसे हैं वही हमसे किया जाता है। लेकिन हम चाहें तो धोखा दे सकते हैं। बुराई भीतर दबाई जा सकती है। दबाई हुई बुराई दुगुनी हो जाती है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बुरा करें। मैं यह कह रहा हूं, बुराई को दबाने से बुराई से मुक्त नहीं हुआ जा सकता! बुरे होने को ही रूपांतरित होना है। इसलिए सूत्र तो एक है कि बुरे न हों। लेकिन बुरे कैसे न होंगे, बुरे हम हैं! इसलिए इस बुरे होने को जानना पड़े, जागना पड़े, पहचानना पड़े। यही मैं तीन दिनों से कह रहा हूं कि यदि हम अपनी बुराई को पूरी तरह जान लें तो बुराई के बाहर छलांग लग सकती है।

लेकिन हम बुराई को जान ही नहीं पाते, क्योंकि हम तो यह सोचते हैं कि बुराई कहीं बाहर से आ रही है। बुरे को देखेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरे को सुनेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरा बोलेंगे तो बुरे हो जाएंगे। हम तो यह सोचते हैं कि बुराई जैसे कहीं बाहर से भीतर की तरफ आ रही है। हम तो अच्छे हैं, बुराई जैसे बाहर से आ रही है।

यह धोखा है! बुराई बाहर से नहीं आती; बुराई भीतर है! भीतर से बाहर की तरफ जाती है बुराई। गुलाब में कांटे बाहर से नहीं आते, भीतर की तरफ से आते हैं। फूल भी भीतर की तरफ से आता है, वह भी बाहर से नहीं आता। भलाई भी भीतर से आती है, बुराई भी भीतर से आती है; कांटे भी भीतर से, फूल भी भीतर से।

इसलिए बहुत महत्वपूर्ण यह जानना है कि भीतर मैं क्या हूं? वहां जो मैं हूं, उसकी पहचान ही परिवर्तन लाती है, क्रांति लाती है।

लेकिन शिक्षाएं ऐसी ही बातें सिखाए चली जाती हैं। वे बहुत ऊपरी हैं, बहुत बाहरी हैं। इसलिए सारी शिक्षाओं ने मिल कर ज्यादा से ज्यादा आदमी के आवरण को बदला है, उसके अंतस को नहीं। और आवरण बदल जाए इससे क्या होता है? सवाल तो अंतस के बदलने का है। आवरण सुंदर हो जाए तो भी क्या होता है? सवाल तो अंतस के सुंदर होने का है।

हां, एक कठिनाई हो सकती है कि आवरण सुंदर बनाया जा सकता है और अंतस कुरूप रह जाए। तो आदमी दो हिस्सों में बंट जाए, असली आदमी भीतर हो, नकली आदमी बाहर हो। जैसा कि है। एक आदमी है नकली, जो हम बाहर होते हैं; और एक आदमी है असली, जो हम भीतर होते हैं। वह जो भीतर है वही है। और अगर कहीं कोई परमात्मा है तो उसके सामने जब हम खड़े होंगे तो वह जो भीतर है वही दिखाई पड़ेगा। वह जो नकली है वह छूट जाएगा। वह साथ नहीं होगा।

इसलिए अगर कोई क्रांति करनी है तो आचरण में करने की उतनी चिंता मत करना, अंतस में करना; क्योंकि अंतस से आचरण आता है। लेकिन समझाया कुछ ऐसा जाता है कि जैसे आचरण ही अंतस है। तब आदमी आचरण को ही बदलने में लग जाता है। आचरण बदल भी जाए तो भी अंतस नहीं बदलता। अंतस बदले तो ही आचरण बदलता है।

मैं सुबह कह रहा था, मैं कह रहा था कि अगर कोई गेहूं बोए तो भूसा भी पैदा हो जाता है। गेहूं तो अंतस है; भूसा आचरण है, बाहर है। लेकिन अगर कोई भूसे को बोने लगे, तो गेहूं तो पैदा होता नहीं, भूसा भी सड़ जाता है। गेहूं बोना चाहिए, तो भूसा भी आ जाता है बिना बोए। और भूसा बोया, तो गेहूं तो आता ही नहीं, भूसा भी सड़ जाता है। आचरण भूसा है, अंतस आत्मा है।

इसलिए सूत्र एक है–बुरे मत होओ।

लेकिन बुरे हम हैं! मत होओ कहने से क्या होगा?

बुरे मत होओ, इसका अर्थ हुआ कि जो हम हैं–बुरे–उसे जानें, पहचानें। इतना तय है कि अगर कोई आदमी अपनी बुराई को पहचान ले तो बुरा नहीं रह जाता। बुरा होना असंभव है।

न मालूम कितने हत्यारों ने अदालतों में इस बात की स्वीकृति की है कि हम हत्या होश में नहीं किए हैं। हम बेहोश थे तब हो गई यह बात। और कुछ हत्यारों ने तो यह भी कहा है कि उन्हें स्मरण ही नहीं है कि उन्होंने हत्या कब की। तो पहले तो समझा जाता था कि ये झूठ बोल रहे हैं। लेकिन अब तो मनोवैज्ञानिक उनकी स्मृति की खोजबीन करके कहते हैं कि वे ठीक बोल रहे हैं, उनको पता ही नहीं उन्होंने हत्या कब की। वे इतने बेहोश हो गए क्रोध में कि हत्या कर गए, वह उनकी स्मृति ही नहीं बनी, जब वे होश में आए तब हत्या हो चुकी थी।

जो गहरे में जानते हैं, वे कहते हैं, आदमी बुराई करता है सदा बेहोशी में। कोई भी आदमी बुराई को होश में नहीं करता। होश में कर नहीं सकता! सब बुराई बेहोशी में है। इसलिए असली सवाल बेहोशी तोड़ने का है।

महावीर से किसी ने पूछा–साधु कौन है? तो महावीर ने नहीं कहा कि जो मुंह-पट्टी बांधता है। बड़ी गलती की। वे अगर बता देते कि जो मुंह-पट्टी बांधता है, तो हम सब साधु हो जाते। महावीर ने नहीं कहा कि जो ऐसा खाना खाता है; जो ऐसा सोता है; ऐसा उठता है।

नहीं। महावीर से पूछा–साधु कौन है? तो महावीर ने कहा, जो जागा हुआ जीता है।

असाधु कौन है? तो महावीर ने नहीं कहा कि जो वेश्या के घर जाता है, कि जो बीड़ी पीता है, कि मांस खाता है। महावीर ने कहा, जो सोया हुआ जीता है वह असाधु है।

हम सब सोए-सोए जी रहे हैं। हमें पता ही नहीं है कि हम सो रहे हैं, सोने में ही सब कुछ कर रहे हैं, एक नींद पकड़े हुए है और चले जा रहे हैं।

एक ही धर्म का गहरा सूत्र है कि हम जागें। उस संबंध में मैं आखिरी प्रश्न में बात करना चाहूंगा।

चरखा चलता है, और कुछ भी नहीं होता। अब विध्वंसक कार्यक्रम की जरूरत है। और किन्हीं न किन्हीं लोगों को हिम्मत करनी होगी कि अब हम डिस्ट्रक्टिव प्रोग्राम बनाएं। अब मिटाने की तैयारी करें।

और ध्यान रहे, आदमी की एक अदभुत खूबी है। अगर पुराना गिर जाए तो आदमी बिना बनाए नहीं रह सकता। लेकिन अगर पुराना बना रहे तो आदमी आलस्य में पुराने में ही रहे चला जाता है। वह सोचता है: कल गिरा लेंगे, परसों गिरा लेंगे। फिर ऐसी जल्दी क्या है! थोड़ा पुराने में ही टीम-टाम कर लो; रंग-रोगन बदल दो; थोड़ा नया वार्निश कर दो; एकाध दीवार का पलस्तर गिर गया है, पलस्तर ठीक कर दो; पुराने में ही रहे चले जाओ। बना लेंगे, इतनी जल्दी क्या है! लेकिन अगर पुराना गिर जाए तो कितनी देर बिना नये के रह सकते हो?

जीवंत समाज सदा ही पुराने को गिराने के लिए तत्पर, नये को बनाने के लिए आतुर होता है। मुर्दा समाज पुराने को बचाने में तत्पर, नये से सदा भयभीत होता है। अब हमें कैसा रहना है, यह सोच लेना चाहिए। नये को आने से अगर निमंत्रण रोकना है तो फिर पुराने को बचा लेना चाहिए। और अगर नये को आमंत्रण देना है तो पुराने को हटाना ही पड़ेगा। दुखद भी होता है कई बार पुराने को हटाना, क्योंकि उसके साथ इतने दिन रहे। लेकिन दुख के साथ भी विदा देनी पड़ती है। पुराने को अलविदा कहना ही पड़ेगा, तभी नये का आलिंगन हो सकता है। मैं तो विध्वंसक हूं। क्योंकि उसके अतिरिक्त अब सृजनात्मक होने का कोई मार्ग नहीं है। न कभी था।

कहानी लिखी है।

एक जादूगर है। उस जादूगर ने जिंदगी भर मेहनत करके, एल्केमी की साधना करके, कुछ रासायनिक तत्व खोज कर अमृत का पता लगा लिया। उसने पा ली वह चीज जिसको पीने से कोई आदमी अमर हो सकता है। तब वह सत्तर साल का हो गया था। फिर वह उस प्याले को अपने गले तक प्रसन्न होकर ले गया मुंह तक कि अब पी लूं। लेकिन तभी उसे खयाल आया–फिर मर न सकोगे; क्योंकि अमृत पीने के बाद फिर कोई मृत्यु नहीं! उसने कहा, दो मिनट फिर से सोच लूं। क्योंकि यह तो बहुत मुश्किल बात है। अमृत पीने के बाद फिर मर न सकोगे–उसके भीतर से किसी ने कहा–जरा सोच लो; सदा रहने का इरादा है? फिर मरना असंभव है! फिर पहाड़ से कूदो, चोट न लगेगी; पानी में डूबो, डूब न सकोगे; आग में जलो, जल न सकोगे। अमृत के बाद फिर मौत नहीं है! उसने प्याली नीचे रख दी, उसने कहा कि दो दिन सोच लूं, इतनी जल्दी क्या है!

दो दिन सोचा तो उसे लगा कि यह तो बहुत खतरा मोल ले लिया, यह बहुत खतरनाक है। तो वह उस अमृत के प्याले को, जिसे खोजने के लिए जिंदगी भर गंवा दी थी, पा तो लिया उसने, लेकिन पीने की हिम्मत न जुटाई। फिर उसने सोचा कि इतनी मेहनत बेकार चली जाएगी, कुछ मित्रों से पूछ लूं।

जिस मित्र के घर गया वही खुश हुआ कि धन्यभाग, आओ-आओ! लेकिन पीने के पहले उसने पूछा कि भई, तुम खुद क्यों नहीं पीते? तो उसने कहा, मैंने सोचा पीने का, लेकिन फिर मर न सकूंगा। तो उस मित्र ने कहा, हमको दुश्मन समझा है अपना? कहीं और ले जाइए!

वह गांव-गांव घूमता रहा, कोई आदमी न मिला जो उसको पीने को राजी हो। सम्राट के पास गया। और उसने कहा कि मैं थक गया, अब मैं मरने के करीब हूं। जिंदगी भर मेहनत करके एक चीज खोजी थी, सोचता था बड़े काम पड़ जाएगी। यह अमृत है, आप पी लें। सम्राट पी गया! आमतौर से सम्राटों में बुद्धि कम होती है, नहीं तो सम्राट न बनना चाहते। उसने यह भी नहीं पूछा–पीने के बाद उसने पूछा–अब इसका असर क्या होगा? उसने कहा, इसका असर हो चुका! अब आप मर नहीं सकेंगे! उसने कहा कि बदतमीज, पहले क्यों नहीं बताया? मर नहीं सकूंगा, क्या मतलब तेरा? कभी नहीं मर सकूंगा? उसने कहा, अब कभी नहीं मर सकेंगे।

सम्राट ने कहा, इस आदमी को कैद कर दो। वह आदमी कैद कर दिया गया। वह कैद में मर गया। सम्राट के बेटे बड़े हुए, मर गए, पत्नियां मर गईं, बेटों के बेटे मर गए, बहुएं मर गईं, उनके भी बेटों के बेटे मर गए; लेकिन सम्राट मरता ही नहीं! सम्राट एक प्रेत छाया की तरह घूमने लगा। और सारा गांव चाहता है कि यह मर जाए। सारा घर चाहता है कि यह मर जाए। क्योंकि उसको कोई प्रेम करने वाला न बचा। उससे किसी का कोई संबंध न रहा। उससे लोग डरने भी लगे, भागने भी लगे। उससे इसलिए भी डरने लगे कि इस आदमी के पास भी होना खतरनाक है। पता नहीं यह कैसा आदमी है! यह मरता क्यों नहीं? उसके घर के लोग उससे बात न करते, क्योंकि कई पीढ़ियों का फासला पड़ गया।

वह पहाड़ों से गिरता है, वह आग में कूदता है, वह जहर पीता है, वह छुरा मारता है, लेकिन मरता नहीं। वह एक ही प्रार्थना करता है, सब तरह के मंदिरों में जाता है, गिरजों में जाता है, मस्जिदों में जाता है–कि कोई भगवान सुन ले, मुसलमान का सुन ले, ईसाई का सुन ले, हिंदू का सुन ले। कोई नहीं सुनता उसकी। वह कहता है, मुझे मरना है! मस्जिद सुनसान खड़ी रहती है। चर्च में चिल्लाता है, मुझे मरना है, ईशु! लेकिन कोई आवाज नहीं आती। मंदिर में पुकारता है कि कृष्ण, राम, कोई मेरी सहायता करो, मुझे मरना है! कोई उत्तर नहीं आता। भगवान को पुकारता है कि मुझे मरना है! लेकिन भगवान की फाइल में भी कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि सदा लोग एक ही पुकार करते रहे थे कि हम मर न जाएं! उसका तो उत्तर है भी। लेकिन किसी ने कभी पूछा ही नहीं था कि मुझे मरना है।

सुनते हैं, वह आदमी अभी भी जिंदा है। लेकिन अब वह दूर जंगलों-पहाड़ों में बच-बच कर भागने लगा है। अब वह आदमी से बचता है। क्योंकि आदमी को देख कर उसेर् ईष्या होती है कि यह तो मर जाएगा और मैं नहीं मरूंगा। हो सकता है कभी राजकोट में आए वह आदमी तो आपसे भी मिलना हो जाए।

क्या, हो क्या गया है? उसे अगर पूरी अमृत जिंदगी मिल गई, उस पागल को इतना परेशान क्यों होना चाहिए? परेशान होने का कारण है–जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह मौत से बदतर है। वह जिंदगी ही नहीं है, वह सिर्फ दुख की लंबी कथा है। वह तो थोड़े दिनों की है, इसलिए हम सह लेते हैं। वह लंबी हो जाए तो बहुत मुश्किल हो जाए। सब लंबी चीजें मुश्किल हो जाती हैं। छोटी है, इसलिए सह लेते हैं। पता नहीं चलता, गुजर जाती है, इसलिए सह लेते हैं। लेकिन लंबी हो जाए तो मुश्किल हो जाए।

लेकिन क्या यह जिंदगी है जिससे हमें ऊब जाना पड़ता है? अगर जिंदगी से भी हम ऊब जाते हैं तो फिर क्या होगा जगत में जिससे हम न ऊबेंगे?

नहीं, आदमी कुछ गलत हो गया है। आदमी कहीं कुछ गलत हो गया है, कहीं किसी रास्ते से भूल हो गई है। आदमी के बनावट के सूत्र बुनियादी रूप से गलत हो गए हैं। इसलिए मैं कहता हूं, पुराना आदमी गलत था। क्योंकि पुराना आदमी दुखी है, बेचैन है, परेशान है। पुराना आदमी नाचता हुआ नहीं है। नहीं कह सकते कि भविष्य का आदमी भी नाचता हुआ हो सकेगा। क्योंकि कैसे कहें कि हम पुराने जाल से छूट जाएंगे, छलांग लगा लेंगे?

हां, एक बात पक्की है कि कभी-कभी कोई-कोई आदमी पुराने दिनों में भी यह छलांग लगा गया है। कभी-कभी कोई कृष्ण, कभी कोई बुद्ध छलांग लगा गया इस आग के बाहर। फिर उसकी बांसुरी बजने लगी; फिर उसका चित्त आनंद से भर गया। फिर उसके जीवन में कुछ फूल खिले, जो हमारे जीवन में नहीं खिलते। फिर उसकी जिंदगी में कुछ गीत बजे, जो हमारी जिंदगी में नहीं बजते। फिर उसने किसी वीणा के तार छू लिए, जो हमने नहीं छुए। फिर वह कहता है–बहुत आनंद है; बहुत प्रकाश है; बहुत शांति है; बहुत अमरत्व है; परमात्मा है।

लेकिन हम पूछते हैं–कैसा परमात्मा? कैसा आनंद? हमें शक आता है। हमारा शक बताता है कि हम चूक गए हैं। कृष्ण पर विश्वास आता है? नहीं आता है। कृष्ण कहते हैं, आनंद ही आनंद है, नृत्य ही नृत्य है जीवन में। विश्वास नहीं आता। बुद्ध कहते हैं, शांति ही शांति है, अमृत है, शांति ही शांति है। इतना आनंद है भीतर कि हिसाब नहीं। सुनते हैं, शक होता है कि यह आदमी ठीक कहता है? क्योंकि हमारी जिंदगी में तो कोई गवाही नहीं है इस बात की। बुद्ध झूठे मालूम पड़ते हैं, महावीर झूठे मालूम पड़ते हैं, जीसस झूठे मालूम पड़ते हैं। सुकरात, ये सब कोई ठीक नहीं मालूम पड़ते। क्योंकि हम, हमारी भीड़ कुछ और कहती है। हम कहते हैं–जिंदगी तो दुख है, कौन कहता है जिंदगी आनंद है? जिंदगी में तो कांटे ही कांटे मिलते हैं, कौन कहता है कि फूल भी खिलते हैं?

जरूर कहीं हमारे साथ भूल हो गई है या बुद्ध और महावीर के साथ भूल हो गई है। किसी न किसी के साथ भूल हो गई है। अगर बुद्ध और महावीर के साथ भूल हो गई है, कृष्ण और क्राइस्ट के साथ भूल हो गई है, तो वह भूल करने जैसी है। और अगर हमारे साथ भूल हो गई है, तो उस भूल से छलांग लगाने जैसा है, उसके बाहर आने जैसा है।

उन्होंने जल्दी से पैर पड़े और कहा कि महात्मा जी, आपका सत्संग हो गया, बड़ा अच्छा हुआ। मैंने कहा कि बड़ी गलती हो गई आपसे। अगर मैं महात्मा न होऊं, तो अब आप यह पैर छू लिए वापस कैसे लेंगे? उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मजाक करते हैं! मैंने कहा, मैं मजाक नहीं करता। मैं महात्मा नहीं हूं। मुझे सिर्फ कपड़ों का शौक है, तो मैंने ये कपड़े पहन लिए। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैंने कहा, अगर अब कोई उपाय हो तो जल्दी से पैर छुए वह वापस ले लें। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने कहा, ऐसा हो गया है, मैं सामने खड़ा हूं। मैं महात्मा नहीं हूं। तो उन्होंने कहा, आप हिंदू तो हैं, वैष्णव हैं? मैंने कहा कि यह और मुश्किल हो गई। आपको पहले ही पूछ कर सब करना था। मैं हिंदू भी नहीं हूं, वैष्णव भी नहीं हूं। उन्होंने कहा, क्या मतलब? क्या आप मुसलमान हैं? मैंने कहा कि अगर मैं मुसलमान होऊं तो क्या करिएगा आप? उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैंने कहा, अपना मन मत समझाइए। सब हो सकता है। इसमें क्या कठिनाई है? मुसलमान होने में कोई कठिनाई है मेरे?

उन्होंने फिर मुझे नीचे से ऊपर तक देखा। मैंने कहा, बैठिए, घबराइए मत, अब जो हो गया हो गया। अब बाकी सत्संग शुरू करिए। उन्होंने कहा, मुझे कोई सत्संग नहीं करना। लेकिन आप आदमी कैसे हैं? आप मुसलमान हैं? मैंने कहा कि अगर मैं मुसलमान भी न होऊं तो सिर्फ आदमी होने में आपको कोई एतराज है? सिर्फ आदमी न होने देंगे?

उन सज्जन ने कंडक्टर को बुलाया, वे अपना सामान वगैरह लेकर दूसरे कंपार्टमेंट में चले गए। वे सत्संग करने से बड़े आनंदित हो रहे थे। फिर मैं उनके दरवाजे को खटखटाया जाकर। मैंने कहा, सत्संग नहीं करिएगा? तो उन्होंने कहा, आप मेरे पीछे क्यों पड़ गए हैं? मैंने कहा, मैं पीछे नहीं पड़ा; मैं हिंदू हूं। उन्होंने कहा, आइए-आइए! मैं तो पहले ही समझता था कि आप हिंदू हैं। मैंने कहा, आप देखते नहीं, जरा से शक में पड़ गए! कपड़े नहीं बताते कि मैं महात्मा हूं! उन्होंने दुबारा मेरे पैर पड़े और कहा, आप महात्मा हैं ही, वह तो मैं पक्का मान ही रहा था।

तो यहां हमारी बुद्धि अटक गई है–कहीं कपड़ों पर, कहीं शब्दों पर। इसको तोड़ देना पड़ेगा। गैर-महात्माओं को महात्माओं के कपड़े पहन लेना चाहिए, महात्माओं को गैर-महात्माओं के कपड़े पहन लेना चाहिए। यह सिलसिला टूटना चाहिए। हिंदू को मुसलमान के नाम रख लेना चाहिए, मुसलमान को हिंदुओं के नाम रख लेना चाहिए। यह सिलसिला टूटना चाहिए। यह पचास साल के बाद पता न चल सके–कौन गृहस्थ है, कौन संन्यासी है! कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है! यह पता नहीं चलना चाहिए। इसके पता चलने से बहुत नुकसान हुआ है। आदमी-आदमी के बीच बहुत दीवारें खड़ी हुई हैं। वे सब दीवारें तोड़ देने की जरूरत है, अगर एक नया समाज और एक नया आदमी पैदा करना है।

जब वे मित्र चले गए तो मैंने उनसे पूछा, उन्होंने इतना आग्रह किया, आप दो मिनट के लिए चले चलते। उन्होंने कहा, काम तो बिलकुल नहीं है। लेकिन इस आदमी ने जो मकान बनाया है, उसकी वजह से मेरा मकान नंबर दो हो गया। मैं उस गली से नहीं निकलता। मैं कार का दो मील का चक्कर लगा कर आता हूं। ठहर जाएं, घबराएं मत, साल दो साल की बात है। हम भी बना लेंगे। फिर जाएंगे उनके निमंत्रण पर। हम भी उनको निमंत्रण देंगे। अभी नहीं।

मैंने कहा, अजीब बात है। आप भी हद कर दिए। बना लेना आप मकान। लेकिन उनके मकान में जाने में क्या हर्ज है?

उन्होंने कहा, मैं उस गली से नहीं निकलता। वह मकान देख कर मुझे बड़ी मुश्किल हो जाती है।

फिर मैं दूसरे दिन उन दूसरे मित्र के घर भोजन करने गया। मैंने सोचा कि यह आदमी पागल है। उनके घर गया, मैंने कहा कि वे तो नहीं आए, मैंने भी बहुत आग्रह किया। उन्होंने कहा कि वे आते ही नहीं! जब से मकान बनाया है, चाहता हूं, एक दफा आ जाएं, जरा देख लें कि कैसा मकान बनाया है!

तब मुझे पता चला ये भी पागल हैं। वे दोनों ही उसी चक्कर में हैं। मैं सोचता था कि पहला आदमी पागल है, दूसरा आदमी भी पागल है। अगर हम आदमी-आदमी को खोजने जाएं तो हमें पता लगेगा कि हम एक बड़ा मैड हाउस बना लिए हैं, एक बड़ा पागलखाना बना लिए हैं, उसमें सब आदमी पागल हैं।

लेकिन लगता है कि तुलना विकास करवा रही है। नहीं, तुलना दौड़ाती तो है, लेकिन दौड़ना हर हालत में विकास नहीं है। नरक की तरफ भी दौड़ा जा सकता है। गङ्ढे में भी दौड़ा जा सकता है। और यह भी हो सकता है कि दौड़ते-दौड़ते आदमी दौड़ता ही रहे और पागल की तरह दौड़ता रहे, और कभी ठहर न पाए और दो क्षण विश्राम न कर पाए। किसी वृक्ष के नीचे न टिके, किसी छाया में न रुके। दौड़ता रहे, दौड़ता रहे, और गिरे और मर जाए। तो इस दौड़ को विकास कहिएगा?

करीब-करीब ऐसा ही होता है। बचपन से दौड़ शुरू होती है, कब्र पर शून्य होती है। फ्राम दि क्रेडल टु दि ग्रेव, झूले से लेकर बच्चे के, और मुर्दे की कब्र तक दौड़ चलती रहती है। और हम कहते हैं, बड़ा विकास हो रहा है। बड़ा विकास हो रहा है, क्योंकि आदमी दौड़ता चला जा रहा है।

नहीं, यह विकास नहीं है, यह विक्षिप्त दौड़ है। और यह विक्षिप्त दौड़ है कंपेरिजन की वजह से; यह विक्षिप्त दौड़ है तुलना की वजह से–दूसरा क्या कर रहा है!

दूसरे से क्या प्रयोजन है? मैं मैं हूं। कुछ क्षमताएं परमात्मा ने मुझे दी हैं। मैं उन क्षमताओं का आनंद लूं। और जब मैं उन क्षमताओं का आनंद लूंगा तो वे विकसित होंगी, बिना किसी दौड़ के। मुझे गीत गाना है, गीत गाऊं; सितार बजाना है, सितार बजाऊं; जूता बनाना है, जूता बनाऊं; किसी के पैर दबाने हैं, पैर दबाऊं। मुझे जो करना है, मैं करूं। और अगर मुझे आनंद आता है तो आनंद आने से मैं और करूंगा, और करूंगा, और करूंगा, गहरा करूंगा। आनंद मेरा बढ़ता जाएगा, मैं गहरा होता चला जाऊंगा। लेकिन दौड़ नहीं होगी, एक बहुत शांत गति होगी। शांत गति होनी चाहिए विकास में।

तुलना शांत गति नहीं होने देती। तुलना एक तरह के ज्वरग्रस्त व्यक्तित्व में जहर का काम करती है, जहर डालती जाती है और हम भागते चले जाते हैं।

से लौटता नहीं। फिर वह कहता है, अब जब तक न गिर जाएं तब तक लौटें कैसे! मरेंगे यहीं, राजघाट पर ही दफनाए जाएंगे, अब कहीं नहीं जाते। तो वहां जो गया वह चिपक कर बैठ जाता है। या तो गिर ही जाता है जाते-जाते, नहीं तो दो-चार दिन बाद गिर जाता है। लेकिन दौड़ है दिल्ली के लिए और दिल्ली बड़ी हैरान है। और दिल्ली सदा यही सोचती है, लोग किसलिए दौड़ कर यहां आते हैं–सिर्फ मरने के लिए? गिरने के लिए? किसलिए दौड़ कर यहां चले आते हैं?

सारे यश के केंद्र, सारी प्रतिष्ठा के केंद्र, धन के केंद्र कब्र बन जाते हैं। दौड़ का आखिरी पड़ाव वहां पड़ता है, आदमी गिर जाता है।

टाल्सटाय ने एक छोटी सी कहानी लिखी है, वह सबने पढ़ी होगी। वह बहुत अदभुत है। उस कहानी का नाम है: हाउ मच लैंड डज ए मैन रिक्वायर? एक आदमी को कितनी जमीन की जरूरत है?

एक आदमी के घर में एक मेहमान रुका है रात। और उस मेहमान ने रात में उस आदमी से कहा कि तुमने सुना? तुम क्या कर रहे हो, समय खो रहे हो अपना! छोटी सी जमीन है, इसको बेच दो। वहां दूर साइबेरिया के पास बड़ी अदभुत जमीन मुफ्त में मिल रही है। तुम यहां क्यों पड़े हो? भागो!

उस आदमी ने कहा, कहां है वह जगह? वह उस रात नहीं सो सका। उसको सदा अच्छी नींद आती थी, उस रात वह नहीं सो सका। रात में कई बार उठा कि सुबह हुई कि नहीं हुई। वह आदमी उठ आए तो पता लेकर मैं भागूं।

सुबह उठ कर उसने पता लिया। जमीन बेच दी और साइबेरिया की तरफ भागा। वहां जाकर उस गांव में पहुंचा जहां वह जमीन मिलती थी–मुफ्त! हालांकि उसको कभी कोई खरीद नहीं पाता था। लेकिन अगर हमको भी पता चल जाता–मेरे घर में भी कोई ठहरता और मुझसे कहता कि जमीन मुफ्त मिल रही है, तुम क्या कर रहो हो यहां! तो मैं भी भागता। और एक ही शर्त थी कि सुबह खूंटी गाड़ कर दौड़ो और सांझ होने तक लौट आओ, जितनी जमीन को तुम घेर लोगे दौड़ कर, उतनी तुम्हारी। इतनी ही शर्त पर जमीन मिलती थी। हालांकि उस गांव की जमीन कभी नहीं बिकी। उस गांव के लोग बड़े बुद्धिमान रहे होंगे। इतने बुद्धिमान लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं हैं। उस गांव में बड़े बुद्धिमान लोग थे। एक इंच जमीन कभी भी न गई उनकी; हालांकि इतनी सस्ती बेचते थे। लेकिन तरकीब बहुत होशियारी की थी। सारी मनुष्य-जाति का अनुभव उस तरकीब में लगा दिया था उन्होंने।

वह आदमी भागा हुआ पहुंचा। सौ एकड़ जमीन थी, उसने बेच दी, रास्ते का खर्च पूरा किया। वहां जाकर जब उसने सुना कि बात सच है, तो उसने दावत दी और कहा कि कल सुबह मैं दौड़ शुरू करूंगा। क्या यही शर्त है सिर्फ कि मुझे खूंटी गड़ा कर दौड़ना है! रात भर वह फिर न सो सका। उसने सोचा, किस तरफ दौडूं? पूरब जाऊं कि पश्चिम जाऊं? सब तरफ जमीन बढ़िया से बढ़िया है।

सुबह उसने खूंटी गड़ाई, सूरज अभी उग भी नहीं पाया और खूंटी उसने गड़ा दी। गांव का मुखिया आ गया, गांव के लोग आ गए, सबने उसको शुभकामनाएं कीं कि भगवान करे तुम ज्यादा से ज्यादा जमीन घेर लो! लेकिन उस पागल आदमी ने यह न पूछा कि पहले कोई घेर पाया? वह नहीं पूछा। कोई नहीं पूछता; वह भी क्यों पूछता। वह भागा। उसने तो आशीर्वाद सुनने की भी फिक्र न ली। शुभकामना सुनने में समय गंवाना व्यर्थ है। वह तेजी से दौड़ा। वह भागा।

उसने अपने साथ रोटी और पानी ले लिया था, ताकि भूख-प्यास न सताए, जल्दी न लौटना पड़े। रास्ते में ही भोजन कर लूंगा, पानी पी लूंगा। वह पहले भागता ही रहा। उसने कहा कि दोपहर तक तो मैं भागता ही रहूं–बारह बजे तक; फिर लौटना शुरू करूंगा। तो जितनी तेजी से दौड़ सकूं दौड़ता जाऊं। जितना दौड़ता था उतनी सुंदर जमीन आगे थी, उतनी और मखमली जमीन थी, उतनी कीमती जमीन थी। वह तो पागल हुआ जा रहा था। उसने कहा, एक दिन का मौका है सिर्फ! जितना मिल गया, मिल गया; चूक गया, चूक गया।

मीलों दौड़ चुका था। बारह बज गए। उसने कहा, बारह बज गए! मन के किसी हिस्से ने कहा, लौट चलो। लेकिन मन के किसी हिस्से ने कहा कि थोड़ा सा और दौड़ लो, इतनी जल्दी क्या है? लौट चलेंगे, जरा तेजी से चलेंगे लौटते वक्त।

मत। लेकिन चलने और दौड़ने में बहुत फर्क है। दौड़ता वह है जो तुलना करता है। चलता वह है मौज से जो तुलना नहीं करता, अपनी भीतर की गति से चलता है। जितनी गति है, चलता है। विश्राम करना है, विश्राम करता है। क्योंकि वह यह देखता ही नहीं कि पड़ोस का कहां चला गया। उससे कोई मतलब नहीं है; उससे कोई प्रयोजन नहीं है; उससे कोई संबंध नहीं है। मुझे जब मौज है तब चलता हूं, जब मौज है तब सोता हूं। जब उठना है तब उठता हूं, जब बैठना है तब बैठता हूं।

विकास, विकास बहुत आंतरिक बात है, बाहरी बात नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि तुलना से मुक्त होना चाहिए तो ही मनुष्य शांत गति कर सकता है और आनंद के लक्ष्य तक पहुंच सकता है।

प्रणाम है जो भय से निकलता है। दोनों में हाथ एक से जुड़ते हैं। लेकिन भीतर प्राण में दोनों में घटनाएं अलग घटती हैं। उसकी खोजबीन करनी चाहिए, उसकी खोजबीन करनी चाहिए कि मेरी जिंदगी में वह मौका आ जाए जब कि प्रेम से भी हाथ जुड़ने लगें, प्रेम से भी हाथ उठने लगें।

अभी तो हमारे सब हाथ मतलब से उठते हैं, प्रयोजन से उठते हैं। जहां प्रयोजन है, जहां मतलब है, वहां भय है। जहां निष्प्रयोजन हाथ उठते हैं वहां तो कोई भय की बात नहीं है।

एक कहानी और मुझे याद आती है जो मुझे बहुत प्रीतिकर है। एक फकीर एक मंदिर में ठहरा। रात थी बहुत सर्द और भगवान बुद्ध की तीन मूर्तियां थीं लकड़ी की। पुरोहित तो सो गए थे। उस फकीर ने एक मूर्ति उठा कर आग लगा कर जला कर ताप ली। जब आग भभकी तो पुजारी की नींद खुली कि मंदिर में आग किसने जलाई? क्या वह पागल फकीर आग जला लिया मंदिर के भीतर? तो वह उसे ठीक करने आया, समझाने आया कि मंदिर में आग मत जलाओ! लेकिन जब आकर उसने देखा कि बुद्ध जल रहे हैं–जल ही चुके हैं, राख हो गए हैं–तब तो उसके मंदिर में ही आग नहीं लगी, पुजारी में भी आग लग गई। पुजारी ने तो लकड़ी उठा ली। उसने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम पागल मालूम होते हो! तुमने भगवान की मूर्ति जलाई? तुमने भगवान को जलाया?

नहीं है–ऐसा मुझे लगता है, ऐसा मेरा जानना है। अब मेरे जानने को मैं कैसे झुठलाऊं! जो मुझे दिखाई पड़ता है मैं वही कह सकता हूं, उससे अन्यथा नहीं कह सकता। मेरे लिए आदर्श नहीं है यह सबके भीतर परमात्मा होना; यह तथ्य है।

श्री अरविंद से किसी ने पूछा, डू यू बिलीव इन गॉड? ईश्वर में विश्वास करते हैं आप?

अरविंद ने कहा, नो! नहीं!

उस आदमी ने कहा, मैं जर्मनी से आ रहा हूं, इतनी दूर से, यही सोच कर कि आप बड़े ज्ञानी हैं, ईश्वर को पा लिया आपने। आप ईश्वर में नहीं मानते?

अरविंद कहा, नहीं!

उस आदमी ने कहा, बड़ी यात्रा फिजूल हो गई। आप ईश्वर को बिलकुल इनकार करते हैं?

अरविंद ने कहा, मैंने इनकार कहां किया! मैंने तो इतना ही कहा कि मैं मानता नहीं।

तो उस आदमी ने कहा, इनकार तो हो गया।

अरविंद ने कहा, तू गलत सवाल पूछता है। आई नो देयरफोर आई कैन नाट बिलीव। मैं जानता हूं इसलिए मैं विश्वास कैसे करूं? जिसको हम जानते हैं उसमें विश्वास करते हैं? जिसको जानते नहीं उसमें विश्वास करते हैं।

अरविंद ने कहा, ईश्वर है, यह मेरा ज्ञान है, यह मेरा विश्वास नहीं।

आस्तिक का विश्वास होता है। इसलिए आस्तिक का कोई भरोसा नहीं। आस्तिक कहता है, हम ईश्वर में विश्वास करते हैं।

विश्वास? विश्वास का मतलब कि पता नहीं है। सूरज में विश्वास करते हैं? राजकोट में विश्वास करते हैं? नहीं, राजकोट है। विश्वास की कोई जरूरत नहीं। सूरज है। ईश्वर में विश्वास करते हैं, क्योंकि पता नहीं कि है या नहीं। इसलिए विश्वासी के भीतर सदा अविश्वास बैठा रहता है।

नहीं, जो जानता है, जानता है, तथ्य है। यह मैं आपसे कहता नहीं कि आपके भीतर परमात्मा है, है ही। सच तो यह है कि भाषा बड़ी गलती करवा देती है। जब मैं आपसे कहता हूं “आपके भीतर’, तो भाषा गलत बोल रहा हूं। लेकिन कोई उपाय नहीं है।

कल सुबह मैंने, मैं जिस घर में ठहरा हूं, वहां किसी से कहा कि जरा एक पानी का गिलास ले आओ। पानी का गिलास तो कोई ला नहीं सकता। पानी का गिलास कैसे लाइएगा? लेकिन गिलास में पानी कोई ले आया। भाषा मेरी गलत थी, लेकिन मतलब समझ में आ गया। हम आमतौर से कहते हैं, पानी का गिलास ले आओ! लेकिन जब भी आता है गिलास में पानी आता है, पानी का गिलास कभी नहीं आता।

तो जब मैं आपसे कहता हूं “आपके भीतर’, तो भाषा थोड़ी गलत है, क्योंकि भाषा गलत ही होगी। जब मैं कहता हूं “आपके भीतर’, तो मेरा मतलब है आप ही। ऐसा नहीं कि आप कुछ अलग हैं और आपके भीतर परमात्मा है। आप ही परमात्मा हैं। और आपका मतलब आप यह मत समझ लेना कि आप ही हैं, ये जो खंभे गड़े हैं ये भी हैं, वह जो दीवार खड़ी है वह भी है, वह जिस फर्श पर आप बैठे हैं वह भी है। आप इस अहंकार में मत पड़ जाना कि आप! सड़क पर पड़े हुए पत्थर भी हैं।

जब मैं आपसे कह रहा हूं तो आपसे ही नहीं कह रहा, ये दरख्त भी सुन रहे हैं और दरख्तों पर सो गए पक्षी भी सुन रहे हैं। सोए हुए आदमी सुन रहे हैं, सोए हुए पक्षी भी सुन रहे हैं। नहीं, आपसे मतलब है–जो भी है वह परमात्मा ही है। और यह कोई आदर्श नहीं है, यह तथ्य है।

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