नये समाज की खोज-(प्रवचन-05)जीवन-मूल्य और संघर्ष

 



जीवन-मूल्य और संघर्ष-(प्रवचन-पांचवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)


हां, कई बार कोई चीज हमारे भीतर जागते-जागते किसी कोने में पड़ी रह जाती है। भूल जाते हैं, दूसरे काम में लग जाते हैं, दूसरी जिंदगी आ जाती है। कई दफा बीस वर्ष नहीं, बीस-बीस जन्म तक कोई चीज हमारे भीतर होकर पड़ी रहती है। और कभी भी उस पर चोट पड़ जाए, वह फिर जिंदा हो जाती है। क्योंकि भीतर कुछ मरता नहीं है, जन्मों-जन्मों तक नहीं मरता, प्रतीक्षा ही करता है और मौका देखता है कि कब ठीक पानी पड़ जाएगा और बीज फूट जाएगा। और जब वैसा होगा तो बहुत फर्क पड़ेगा। जिस आदमी के भीतर वैसी कोई बात नहीं हुई है कभी, वह भी सुनेगा, उसे यह बिलकुल फॉरेन मालूम पड़ेगा कि विजातीय बात है, पता नहीं क्या बात है। लेकिन जिसके भीतर कुछ सजातीय स्वर जग जाएगा, उसे बात ऐसी लगेगी कि यह मुझे कहनी थी और आपने कैसे कह दी! बस ऐसा ही लगेगा, इससे अलग कुछ और नहीं लगेगा।

और ऐसा लगता है जैसे सारे क्राउड में शायद मुझे ही आप कह रहे हैं।

हां, बिलकुल ही, बिलकुल ऐसा ही, बिलकुल ऐसा लगेगा, बिलकुल ऐसा लगेगा। ठीक कहते हैं, हमेशा ऐसा ही है। और सच बात तो यह है कि क्राउड से तो कोई बात हो ही नहीं सकती; होती तो एक-एक से ही है, चाहे वहां कितने ही लोग मौजूद हों।

क्या यह सही है कि हर एक चीज का एक क्षण होता है?

आज ही सुनना था यह?

 हां, अक्सर यह बात सही है।

क्योंकि मेरे इस छोटे से जीवन में इतनी घटनाएं घटी हैं और मैंने तो किसी परम परमात्मा से…जो उसने दिया-लिया सब उसी का, मेरी कोई इच्छा नहीं है। मगर यह जरूर है कि जो पाया और जो गंवाया है, सब उसी की इच्छा से हुआ है। और जब कल शाम को हम लोग जा रहे थे वापस, एक और मित्र थे हमारी इंडस्ट्री के ही, वे भी आपके भक्त हैं। तो हम यही सोचते जा रहे थे कि आचार्य जी से मिलना है क्योंकि पिछली बार जब आप आए थे तो महीपाल जी से बात हुई थी, विष्णु से बात हुई थी कि आप भी कुछ इंडस्ट्री के व्यक्तियों से मिलना चाहते हैं।

हां-हां, जरूर मिलना चाहता हूं।

 और यह मुझे अभी तक क्लियर नहीं था कि क्यों मिलना चाहते हैं! और इस इंडस्ट्री में कितने गिनती के लोग हैं जो कि इस धारा में बहना चाहेंगे! तो कल ही हम सोच लिए थे कि जाकर आज शूटिंग से वापस पहुंचा तो कहने लगे आपके लिए एक शुभ समाचार है।

मेरी महीपाल जी से बात हुई थी, वे तो मिले नहीं, कल चले गए। नहीं तो उनका खयाल था, आप की भी बात हुई थी। फिर आज अचानक प्रवीण ने कहा। तो मैंने कहा, आज ही बुला लो, अगर वे हों तो उन्हें बुला ही लो। काम तो बहुत है। क्योंकि असल में हर युग का अभिव्यक्ति का माध्यम है, और हर युग का अलग है, हर युग का माध्यम अलग है। जिससे हम लोक-मानस तक पहुंच सकते हैं, वह माध्यम अलग है। जब तक हम बोल कर ही पहुंच सकते थे, दूसरा कोई रास्ता नहीं था। और जो बात कान से पहुंचती है, उससे हजार गुना आंख से पहुंचती है, अगर वह देखी जा सके।

हम आमतौर से यह कहते हैं कि आपने सुना है कि देखा है? क्योंकि सुने हुए के सच होने का कोई भरोसा नहीं है, भरोसा मुश्किल है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास करना मुश्किल है। और जिस इंडस्ट्री की आप बात कर रहे हैं, उसने चीजों को देखने का मौका दे दिया है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता, देखने का बल इतना है। सुने हुए सच पर भी विश्वास करना बहुत मुश्किल है। सुनने का कोई बल नहीं है।

हां, लेकिन वह झूठ का भी बल है। और देखे हुए झूठ का तो बहुत बल है। और आंख को कुछ पता नहीं है कि वह सच में देख रही है कि परदे पर देख रही है। आंख सिर्फ देखती है। और उसकी लाखों-करोड़ों वर्षों की देखी हुई बात पर विश्वास करने की आदत है। वह जो देख लेती है उसको सच मानती है। इंस्टिंक्टिव है वह सब, वह आपको पता नहीं है। और इसीलिए तो आप फिल्म में देख रहे हैं कि एक आदमी दुखी हो रहा है–और एक आदमी बैठ कर रोने लगा। वह बिलकुल भूल गया है कि यह जो है वह परदा है, वह भूल ही गया है। क्योंकि आंख को पता ही नहीं है। आंख तो देखना जानती है, देखने पर विश्वास करना जानती है। यह करोड़ों वर्षों की आंख की आदत है। और हमको कभी पता नहीं था कि हम झूठा परदा भी बना लेंगे और उस पर हम देख लेंगे।

तो अब क्या हुआ…और हमेशा यह होता है कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है, तो सबसे पहले नये आविष्कार का उपयोग हमारी निम्नतम जरूरतों के लिए होता है। कहावत है अरब में कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है तो शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है। भगवान को बहुत मुश्किल से मौका मिलता है उस पर कब्जा करने का, नये आविष्कार पर। तो नये आविष्कार तो रोज होते चले जा रहे हैं और हमारी जो निम्नतम हैं वृत्ति, वे उस पर कब्जा कर लेती हैं। और इसलिए निम्नतम वृत्तियां बिलकुल पागल हो गई हैं। और उनको पागल करके शोषण भी किया जा सकता है, किया जा रहा है।

अब इस वक्त सारी की सारी दुनिया आदमी के सेक्स का शोषण कर रही है, पूरी तरह से शोषण कर रही है। हमें दिखाई भी नहीं पड़ता कि हम पेंटिंग से भी वही कर रहे हैं, हम फिल्म से भी वही कर रहे हैं, संगीत से भी वही कर रहे हैं, हम घूम-फिर कर आदमी के सेक्स का एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं। और अगर सेक्स का इतना एक्सप्लायटेशन होगा, तो आदमी निश्चित ही खतरे में पड़ते चले जाएंगे। क्योंकि वहां से जितनी शक्ति एक्सप्लायट हो गई, उतनी कनवर्ट नहीं हो सकेगी फिर।

और यह मजे की बात है कि सेक्स एक्ट से उतनी इनर्जी आपकी व्यय नहीं होती जितनी सेक्स इमेजिनेशन से व्यय होती है; क्योंकि इमेजिनेशन परवर्शन है। एक्ट तो प्रकृति है, इमेजिनेशन बिलकुल परवर्शन है। और इमेजिनेशन का शोषण हो सकता है।

तो मेरा कहना यह है कि इस इमेजिनेशन का क्या शोषण शुभ के लिए नहीं हो सकता?

इस दिशा में बहुत सोचा जाना जरूरी है, बहुत सोचा जाना जरूरी है। जैसे दरवेश नृत्य होते हैं।

एक फकीर था गुरजिएफ, आठ-दस साल पहले मरा। तो उसने कुछ दरवेश नृत्य खोजे हुए थे, जिनको आप घंटे भर सिर्फ देखें, आप देखते-देखते ध्यान में चले जाएंगे। सिर्फ वह डांस देखते रहिए, उसके सारे स्टेप्स, उसकी सारी लय, उसका पूरा संगीत, वह आपके भीतर से आपको ऊपर उठाना शुरू करता है। और घंटे भर में आप बिलकुल ही उस जगत को अनुभव करेंगे जो आपने कभी नहीं जाना। और एक बार उसकी जरा सी भी अनुभूति हो जाए तो फिर उसकी पुकार आपका पीछा करेगी, वह आपको चौबीस घंटे बुलाएगी कि वहां भी एक दुनिया है जो अनजानी रह गई। उसने कुछ दरवेश नृत्य…।

अब दरवेश नृत्य के द्वारा बहुत काम किया है सूफी फकीरों ने। जो लोग कुछ और नहीं समझ सकते–किताब नहीं समझ सकते, ज्ञान नहीं समझ सकते, कोई फिलासफी नहीं समझ सकते–वे भी नृत्य देख तो सकते हैं। और हम उनसे समझने के लिए कुछ कह ही नहीं रहे, उनकी आंख देखने में जो कर जाती है, उससे उनके सारे स्नायु पर जो असर हो जाते हैं और उनकी सारी चेतना तक जो प्रवेश हो जाता है, वह बिलकुल ही सहज है। उसमें उनसे करने को हम कुछ कह नहीं रहे हैं। और पहला अनुभव अगर सहज हो जाए तो दूसरा अनुभव आदमी साधना से करना चाहता है।

इस वक्त जो कठिनाई पड़ गई है–हम पहला अनुभव ही साधना से करवाने की दिक्कत में पड़े हुए हैं। पहला अनुभव सहज हो जाए, तो दूसरा अनुभव आप कितने ही कष्ट को उठा कर, श्रम को उठा कर कर सकते हैं। संगीत अदभुत है इस दुनिया में…इधर मेरा खयाल है कि एक थोड़े से मित्रों को, जो अलग-अलग दिशाओं में सोचते हैं–संगीत में हैं, या फिल्म में हैं, या पेंटिंग में हैं, या काव्य में हैं–क्या यह नहीं हो सकता कि ये सारे लोग मिल कर यह सोचें कि हम आदमी को उस ऊंचाई की तरफ ले जाने के लिए अलग-अलग दिशाओं से क्या दर्शन दे सकते हैं?

उसकी पत्नी को भी कोई देख कर उत्सुक हो जाता है, कोई देखता है तब न! पर हम आदी हो जाते हैं सबके, और धीरे-धीरे सारे माध्यम आदत के हिस्से हो जाते हैं।

अभी मैं पटना था, तो जालान पिंडी है, एक बहुत अच्छा उन्होंने म्यूजियम बनाया हुआ है घर पर, बहुत शौक से। तो उधर मैं गया तो एक तिबेतन गांग रखा हुआ है। देखा आपने कभी? हम घंटा मंदिर में रखते हैं, वैसा तिबेतन गांग होता है, वह गोल होता है। एक लकड़ी का डंडा होता है। एक लकड़ी का डंडा होता है तो वह उस गांग में जोर से घुमाते हैं, ऐसा तीन बार घुमाते हैं, फिर जोर से उसको मारते हैं। तो तीन बार घुमाने से और चौथी बार चोट करने से “ॐ मणि पद्मे हुम्’ इसकी पूरी आवाज करता है, वह गांग जो है, पूरी आवाज करता है। इतनी अदभुत आवाज करता है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते। पूरा सूत्र बोल देता है वह। तीन दफा उस गोले के अंदर डंडे को घुमाया और चौथी बार उसको मारा, तो वह “ॐ मणि पद्मे हुम्’, वह जो चोट है वह “हुम्’ कर देती है, और वह आवाज गूंजती रहती है। तो वह मंदिर में, जहां पगोडे गांग है, वह गूंजती रहती है। और वह ध्यान के लिए काम में लाई जाती है।

अब वह हजारों वर्षों से लाई जा रही है। और उसे कोई नहीं सुनता, दिन भर बज रही है। न किसी को मतलब है, न किसी को प्रयोजन है। जैसे मंदिर में जाकर हम घंटा ठोंक देते हैं, ऐसा वह तिबेतन जाकर उसको ठोंक कर अपने घर चला आता है। वह सुनता ही नहीं, उसको मतलब ही नहीं रहा।

वह कभी डिवाइस थी। और जिसने पहली दफा जिस चेतना ने…आज भी जो चेतना उसको पहली दफा सुनेगी, तो आपको पूरे प्राणों में वह ॐ मणि पद्मे हुम् की आवाज अंदर तक गूंजती मालूम पड़ेगी। और फिर जहां वह खोने लगती है, उस खोने पर ही ध्यान करना है। और जहां वह खोते-खोते, खोते-खोते शून्य हो जाती है, उसी शून्य में डूब जाना है।

अब वह इतना मेकेनिकल, अब वह आदत हो गई है। अब वह उसको रोज सुन रहा है। गांव में दिन-रात वह बज रहा है, किसी को मतलब नहीं है।

सब चीजें पुरानी पड़ जाती हैं। और इसलिए हमेशा मनुष्य की चेतना को रोज नये-नये माध्यम खोजने पड़ते हैं। तो निम्नतम प्रवृत्तियां तो रोज नये माध्यम खोज लेती हैं और श्रेष्ठतम प्रवृत्तियां पुराने माध्यमों पर ही जोर दिए जाती हैं, इसलिए हार जाती हैं। तो मेरा मानना है कि इस दौड़ में निम्न प्रवृत्ति हमेशा नया खोज लेती है, नया काम्पिटीशन ले आती है। श्रेष्ठ प्रवृत्ति पुराने की ही दुहाई दिए चली जाती है। बस वह मुश्किल में पड़ जाती है, वह हार जाती है।

जिस दिन हम श्रेष्ठ के लिए भी रोज-रोज नया खोज सकेंगे–रोज नया गीत, रोज नया संगीत, रोज नया माध्यम–उस दिन, उस दिन मनुष्य की चेतना में बड़ी क्रांति हो जाएगी। और सब तरफ से… वह जो आप कहते हैं कि क्या उपयोग? उपयोग तो बहुत हो सकता है, बहुत उपयोग हो सकता है। और कुछ लोगों को यह सब कुछ सोचना चाहिए।

साधु-संत अब नहीं जीत सकेंगे, वे हार चुके हैं। अब उनसे कुछ हो नहीं सकता, वे बिलकुल मरी हुई बाजी पर खड़े हुए हैं। अब तो साधुता को बिलकुल नये द्वार खोज कर लड़ाई लेनी पड़ेगी, तब तो होगा, नहीं तो गया, एकदम गया। इस बुरी तरह से हार रही है श्रेष्ठता जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और हर वर्ष कितने जोर से सब नीचे उतर रहा है, उसकी भी कल्पना नहीं कर सकते! और धीरे-धीरे कुछ बातें हमें याद ही नहीं रह जाएंगी कि वे थीं भी। आज भी नहीं हम मान सकते हैं।

उसको सिर्फ…वह मैंने कहा न कि वह जो मामला था, वह सिर्फ पैसिव होने का नहीं था। अब क्लासिकल संगीत को भी आप सुनेंगे, लेकिन सुनने की भी टयूनिंग चाहिए। यानी सुनना भी एक एक्टिव पार्टिसिपेशन है, वह भी एक पैसिव नहीं है, कि आप बैठ गए, आप गए और जाकर सुन लिया। आप जाकर तो वही सुन सकते हैं जो उस लेवल पर हो जिस पर सब आदमी हैं।

तो एक जॉज है, या कुछ और है, धूम-धड़ाका है, वह कोई भी जाकर सुन सकता है, क्योंकि हम सब उस जगह हैं। उसे समझने के लिए कुछ सीखना जरूरी नहीं, उसे समझने के लिए पहले कहीं से गुजरना जरूरी नहीं। हम वहां हैं!

 फकीर की तरह ही नाचने-गाने वाले…।

अब वह इसका मतलब यह हुआ कि अब जो खरीद वाला है उसको कुछ पता नहीं है कि वह कैसे परसुएड किया जा रहा है, और किस चीज के लिए उसे परसुएड किया जा रहा है, और वह क्या खरीद कर जाएगा। वह कौन सी किताब पढ़ेगा, वह कौन सा मंजन करेगा, वह कौन सी सिगरेट पीएगा–वह सब परसुएड किया जा रहा है उसको। और परमात्मा के लिए परसुएडर्स जो हैं वे बहुत पुराने ढंग उपयोग कर रहे हैं, वे बहुत ही पुराने ढंग उपयोग कर रहे हैं। अब उनका कोई मायने नहीं रह गया है। जो परसुएडर्स हैं–परसुएडर्स फॉर गॉड–वे बिलकुल हार जाएंगे इस दुनिया में, वे खड़े नहीं हो सकते। उनके पास परसुएशन के वे रास्ते हैं जो चार-पांच हजार साल पहले…बहुत क्रूड मैथड्स हैं। वे जिन्हें बता रहे हैं, वे किसी पर अपील नहीं करने वाले।

पूरे रिलीजन को साइंटिफिक बनाना होगा अब। जैसा कि सारी चीजों के लिए जो हो रहा है, वह उसके लिए करना पड़ेगा। तो हम जीतते हैं यह हारी बाजी, नहीं तो गए; हम उससे कभी जीत नहीं सकते हैं, संभावना नहीं है जीतने की। अगर यह हो सकता है कि एक फिल्म को देख कर सैकड़ों लोग आत्महत्या करने के खयाल से भर सकते हैं, कुछ लोग आत्महत्या कर सकते हैं, तो यह क्यों नहीं हो सकता कि एक फिल्म को देख कर सैकड़ों लोग साधना के खयाल से भर जाएं और कुछ लोग साधना में उतर जाएं? यह हो क्यों नहीं सकता? इसमें कोई विरोध नहीं है, इसमें कोई विरोध नहीं है।

लेकिन कठिनाई यह है कि पुराना जो आर्टिस्ट था, आनंद जी, वह आर्टिस्ट कुछ खयाल लेकर खड़ा हुआ था, जहां लोगों को आना पड़ेगा। आज का आर्टिस्ट सिर्फ बाजार में खड़ा हुआ है, जहां लोग हैं वह वही पहुंच जाता है। मरेगा! आप समझ रहे हैं न? आर्टिस्ट कहता है कि लोग जहां जा रहे हैं हम वहां जाते हैं, वे जो चित्र पसंद करते हैं वह हम पेंट करेंगे, वे जो गीत पसंद करते हैं हम गाएंगे। इस युग का सारा आर्टिस्ट आम आदमी के पीछे है। पिछले युगों का सारा आर्टिस्ट आम आदमी के आगे था। हां, आदमी के पीछे है तो वह पैसे के पीछे हो जाता है। वह आदमी के आगे था। उसके पास कोई मैसेज थी, वह कोई लड़ाई लड़ रहा था। वह मुसीबत में भी था एक अर्थ में। आज भी जो लड़ेगा वह मुसीबत में हो जाएगा। लेकिन कुछ लोगों को तो संघर्ष लेना चाहिए, वे जहां भी हैं। नहीं, नहीं सारी चीजों में ले सकें तो कुछ दिशाओं में थोड़े से प्रयोग करने चाहिए कि वहां कुछ समझ बदले।

तो जरूर आपके मित्रों को मुझे मिलाइए तो मैं कुछ जरूर बात करना चाहूंगा कि इस तरफ कुछ सोचें, कुछ करें।

जहां तक इस छोटी सी दुनिया का ताल्लुक है उसमें…यह दुनिया विचित्र दुनिया बन गई है। जहां तक हमारा ताल्लुक है, आज पच्चीस साल के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बेगिंग करना फिजूल है।

 यह नहीं कि भगवान ने मुझे कोई ख्याति नहीं दी। एक कलाकार के रूप में लोगों ने मेरी जो भी कुछ सेवा रही उसे सराहा। मगर क्या मैं वह कर सकता हूं जो मैं करना चाहता हूं? क्या ये वह कर सकते हैं जो ये करना चाहते हैं? हमारा प्रोडयूसर जो पिक्चर बनाता है, उसको नहीं लोगों को भगवान की तरफ ले जाना है। उसे पैसा बनाना है। और उसके बस में हो, अगर सेंसर बोर्ड न हो, तो वह तो नंगा नाच दिखाएगा।

और जब सेंसर बोर्ड उनकी पिक्चर काटता है, उसके वे खिलाफ खड़े हो जाते हैं। आज बारह साल से आचार्य जी मैंने व्रत लिया हुआ है–सिने इंप्लाइज की सेवा करने का, जो एक्सप्लायटेड क्लास है मेरी इस इंडस्ट्री का। आज भी उन्नीस सौ उनहत्तर में जब कि महंगाई इतनी बढ़ गई है, जब कि मर्सिडीज में घूमने वाले लाखों रुपये कमाते हैं एक्टर और एक्ट्रेसेस, वह गरीब अभी तक स्टूडियो में अस्सी रुपये महीना कमाता है, जो कि गवर्नमेंट के किसी भी स्केल में नहीं आता। यानी आज मिल मजदूर जो है वह ज्यादा कमाता है, आज चपरासी ज्यादा कमाते हैं, ड्राइवर ज्यादा कमाते हैं। मगर मेरे स्टूडियोज में जो लेबर हैं–वह आज भी अस्सी रुपये…एक साउंड रिकार्डिस्ट एक सौ अस्सी रुपया लेता है। जब कि एक पानी पिलाने वाला, सेलटेक्स टे्रड यूनियन के कारण, तेरह रुपये दिन के ले लेता है। मैं उन गरीब लोगों की सेवा करने के लिए आज तेरह साल से खड़ा हुआ हूं। गवर्नमेंट की कमेटियां बनीं, वेज़ बोर्ड बने, पास हो गए सब कुछ, फिर भी लागू नहीं हो रहे। आज किसी…मेरे साथ कभी आप चलिए, मैं आपको स्टूडियो में ले जाऊं।

आप दंग रह जाएंगे कि किस गंदे एटमास्फियर में हम लोग काम करते हैं। जहां किसी के बैठने की जगह नहीं, जहां बाथरूम्स नहीं, जहां किसी मेहमान को हम एक प्याला चाय भी नहीं पिला सकते हैं, वहां हम सुबह से शाम कर देते हैं। अमीर लोग जो लाखों रुपये…उनके लिए एयरकंडीशन रूम बन जाएंगे मेकअप करने के लिए। मगर दूसरे जो गरीब लोग हैं उनके पास बैठने की जगह नहीं है। और यह जो पैसे वाला प्रोडयूसर है या स्टूडियो ओनर है उसको इस बात की कोई चिंता ही नहीं है। क्योंकि वह उन्हें आदमी नहीं समझता, वह जानवर समझता है। उनको वह समझता है कि इनको जरूरत क्या है!

तो आज इतने सालों के बाद उनको ये इतना भी नहीं दिलवा पा रहे हैं। क्योंकि अगले दौर में, मैं उनके साथ जाकर बात कर रहे हैं। और अगर स्ट्राइक करवाते हैं तो बुरी बात है कि हमारा धंधा आप बंद करवाने में लगे हैं। परसों की बात है, मैं इनसे कह रहा था, प्रकाश स्टूडियो में वर्कर्स बैठे थे। न धूप से कोई शेड उनको दिया हुआ है, न बैठने की कोई जगह दी हुई है उनको। वे कहने लगे, मनमोहन जी, आप आठ साल से हमारे अध्यक्ष हैं, कुछ नहीं हो पाया। मुझे इतना दुख हुआ, मैंने कहा, जाओ मैनेजर के दफ्तर में जाकर बात करो। जब जाकर बीस आदमी बैठेंगे, तब उन्हें खयाल आएगा कि हां, आप भी कोई व्यक्ति हैं, आप भी कुछ आदमी हैं, आपको भी बैठने की जगह होनी चाहिए। तभी उनको अकल आएगी, नहीं तो नहीं आएगी। इंकलाब लाने के लिए क्या है कि वह जो बैठक में मैंने अर्ज किया–पिक्चर बनाने वाले वे हैं।

 जरूरत होती है जो प्रतीक्षा नहीं करते और जो कुछ कर सकते हैं। और कई बार बहुत छोटे-छोटे लोग इतना बड़ा तोड़ देते हैं…। लेकिन होता क्या है, हमें यह दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तोड़ते ही से वे बड़े-बड़े लोग हो जाते हैं। सब छोटे-छोटे लोग तोड़ते हैं दुनिया में। लेकिन इतिहास कभी नहीं आंक पाता कि छोटे आदमी कुछ करते हैं। सब काम छोटे आदमी करते हैं। लेकिन इतिहास में अंकते-अंकते वे सब बड़े आदमी हो जाते हैं, क्योंकि वे कर चुके। और तब हम कहते हैं कि वह बड़ा आदमी था। वह कर चुका। वह बड़े आदमी की वजह से नहीं किया, किया इसलिए बड़ा आदमी था और कोई भी छोटा आदमी…।

तो मुझे यह लगता है कि जो हम कर सकते हैं, बहुत छोटा सा कुछ, वह इस दिशा में करने का खयाल। अब आप जो कह रहे हैं, जिस लड़ाई की आप बात कर रहे हैं, वह लड़ाई बिलकुल दूसरी है। जिस लड़ाई की बात मैं कर रहा हूं, वह बिलकुल दूसरी है।

और मैं आपसे कहता हूं कि उस जिस लड़ाई में हम लड़ रहे हैं, जिसमें हम सौ रुपये वाले आदमी को डेढ़ सौ रुपये दिलाना चाहते हैं, अंततः वह लड़ाई रुपये की है। और जिससे हम दिलाना चाहते हैं पचास रुपये, पचास रुपये जिस कारण से हम दिलाना चाहते हैं, उसी कारण से वह भी पचास रुपये छोड़ना नहीं चाहता। जो बेसिक लड़ाई है, जो बेसिक लड़ाई है…और मेरा कहना है कि आप जब तक उससे पचास रुपये छुड़वा पाएंगे, जब तक आप पचास रुपये उससे छुड़वा पाएंगे लड़ कर, वह आप तभी छुड़वा पाएंगे जब वह पचास लाख और इकट्ठे कर लेगा। और लड़ाई हमेशा…गैप उतना ही बना रहता है, गैप जाता नहीं।

हैरान होंगे आप, हम तो छोटी लड़ाई लड़ रहे हैं, रूस जैसे मुल्क तो बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन गैप खत्म नहीं होता, गैप बना हुआ है। सोचा था कि इतनी बड़ी क्रांति होगी, सब गैप चला जाएगा। लेकिन गैप नहीं गया। वह जो कल मालिक था, अब मैनेजर है। मगर वह उतना ही रोब-दाब है, उतनी ही ताकत है, उतनी ही पकड़ है। बल्कि कल से पकड़ ज्यादा बढ़ गई है।

मैं एक मजाक सुन रहा था कि ख्रुश्चेव गया तिफलिस, जब वह ताकत में था। तो वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं के बीच उसने कहा कि अब तो हमारे पास सब कुछ है। आपके पास भी सब के पास कारें, रेडियो, सब होंगे? सबने सिर हिलाया, सिर्फ एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि नहीं, मेरे पास तो नहीं हैं। तो उसने कहा, कि आप अपना नाम दें, यह कैसे हो सकता है!

दूसरे दिन वह आदमी नदारद हो गया, दूसरे दिन वह आदमी गायब हो गया। दूसरे दिन ख्रुश्चेव ने पूछा कि वह जिस आदमी को गाड़ी वगैरह चाहिए थी, वह मिल गई न! तो लोगों ने कहा कि जरूर मिल गई होगी, क्योंकि उस आदमी का कोई पता ही नहीं चल रहा है।

दूसरी घटना मैंने सुनी…। वह आदमी गया! क्योंकि उसने यह बात कैसे कही! गाड़ी है, मतलब हां भरनी चाहिए। गाड़ी है कि नहीं, यह सवाल नहीं है।

लिखे लड़के क्लर्क होना चाहते हैं, रूस में भी। फिर मैं पूछता हूं, मतलब क्या हुआ?

यह उन्नीस सौ तीस की बात है, राहुल की जो घटना है। आज उन्नीस सौ पैंसठ में कोई जाकर पढ़ा-लिखा लड़का कहता है कि मैं भी खेत पर काम करने नहीं जाऊंगा। तो फिर हिंदुस्तान में और अमेरिका में और रूस के लड़के के दिमाग में वैल्यू का फर्क क्या है? वह भी व्हाइट कालर को आदरपूर्ण समझता है। तो फिर ठीक है, वही का वही हो गया। आज जो चीन और रूस के बीच झगड़ा है, वह झगड़ा यह है कि रूस बिलकुल ही कैपिटलिस्ट माइंड पर फिर आ गया वापस। क्योंकि बेसिक वैल्यू तो बदली नहीं थी, जबरदस्ती तुमने कोशिश की, वह पचास साल में फिर खिसक गई।

बड़ी संभावनाएं हैं। और फिर मैं यह कहता हूं कि जिस जिंदगी में हारना ही है उसमें किसी ऐसी लड़ाई के लिए हारना चाहिए कि हारने का भी सुख हो, मजा आए। यानी हारना ही है जिस जिंदगी में, तो फिर लड़ाई बड़ी ले लेनी चाहिए। मेरा अपना मानना यह है कि जहां जीतने का भरोसा ही नहीं है, और जहां इस तरह की चीजों में जीत कर भी कुछ पाने का भरोसा नहीं है, वहां कोई लड़ाई ले लेनी चाहिए। और लड़े और हारे तो भी हर्जा नहीं, एक तृप्ति तो रहेगी कि एक ऐसी चीज के लिए लड़ते थे जिसमें हारने में भी मजा था। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो लोग गलत चीजों के लिए जीत भी जाते हैं वे कोई तृप्ति नहीं पाते। जीत तृप्ति नहीं लाती मनमोहन जी, आप किसके लिए लड़ते हैं, उसकी हार भी…।

अब अगर गौर से देखें तो जीसस हारा हुआ आदमी है, बुद्ध हारे हुए आदमी हैं। ये कोई जीते हुए आदमी नहीं हैं, अभी इनको जीतने में हजारों वर्ष लग जाएंगे। और कभी जीतेंगे, यह भी शक मालूम होता है। शक ही है, अभी जीत-वीत नहीं हुई। लेकिन फिर भी ये लोग कितने आनंद से मरे हैं, हारते हुए, कि जिनको हम जीता हुआ कहते हैं, हिटलर को, या नेपोलियन को, या सिकंदर को…। अब यह बड़ा उलटा मालूम पड़ता है।

इस दुनिया में परमात्मा के लिए लड़ने वाला हारता भी है तो भी एक अर्थ में जीत जाता है। और परमात्मा के खिलाफ लड़ने वाला जीतता भी है तो भी हारता है। क्योंकि वह जो सुगंध थी जीत की वह तो आई नहीं। और मुझे ऐसा लगता है कि अगर बड़ी चीजें जीत जाएंगी तो और बड़े लोग पैदा होंगे, जो और बड़ी चीजों के लिए लड़ेंगे और हारेंगे। यानी ऐसे लोग हमेशा पैदा होते रहेंगे।

नीत्शे ने एक वाक्य लिखा है, बहुत अदभुत लिखा है। नीत्शे ने लिखा है कि वह दिन मर जाने योग्य होगा जिस दिन ऐसे आदमी पैदा नहीं होंगे जो आदमी पर शरमाएं। वह दिन मर जाने योग्य होगा जिस दिन ऐसे आदमी पैदा नहीं होंगे जो आदमी पर शरमाएं। वह दिन बेकार होगा जिस दिन आदमी की प्रत्यंचा–प्रत्यंचा–वह जो तीर है वह अज्ञात के लिए नहीं उठेगा। वह दिन शरमाने जैसा होगा जिस दिन लोग कोई ऐसी बड़ी चीज न पाएंगे जिसके लिए लड़ा जा सके, हारा जा सके।

बहुत मुश्किल है। मैं भी सोचता हूं, मैं भी यही सोचता हूं कि यह बहुत मुश्किल होगा। ऐसा तो कभी नहीं होगा। बड़े से बड़े आकाश खुलते जाते हैं लड़ाई के लिए। हमें छोटी-मोटी लड़ाई लेनी चाहिए। जहां भी हम हैं, जो भी हम कर सकते हैं, जो कुछ भी हम कर सकते हैं, हमें करना चाहिए।


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