Tao Upnishad : Part -1 To 127


जिन्होंने जाना है–शब्दों से नहीं, शास्त्रों से नहीं, वरन जीवन से ही जीकर-लाओत्से उन थोड़े से लोगों में से एक हैं और जिन्होंने केवल जाना ही नहीं है, वरन जनाने की भी अथक चेष्टा की है। लाओत्से उन और भी बहुत थोड़े से लोगों में से एक है। Tao Upnishad
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लाओत्से की किताब जमीन पर बचने वाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध है। इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जोड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो लाओत्से होना पड़े और लाओत्से होकर जोड़ने में फिर कोई हर्ज नहीं है।
लाओत्से ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पुराना जरूर है। लेकिन, एक अर्थ में वह इतना ही नया है, जितनी सुबह की ओस की बूंद नयी होती है। नया इसलिए है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्य की आत्मा उस रास्ते पर एक कदम भी नहीं चली। रास्ता बिलकुल अछूता और कुंआरा है।’ Shixa Aur Dharm


इस पुस्तक के अंत की ओर एक मित्र ने ओशो से पूछा है कि लाओत्से की पच्चीस सौ साल पुरानी धर्म-शिक्षाओं को आपके द्वारा पुनर्जीवित किए जाने के पीछे प्रेरणा क्या है ? ऊपर के कुछ शब्द ओशो ने उसके ही उत्तर में कहे हैं। और उन्होंने इतना फिर जोड़ दिया : ‘पुराना इसलिए है कि पच्चीस सौ साल पहले लाओत्से ने उसके संबंध में खबर दी। लेकिन नया इसलिए है कि उस खबर को अब तक सुना नहीं गया। और आज उस खबर को सुनने की सर्वाधिक जरूरत है, जितनी कि कभी भी नहीं थी।’ Tao Upnishad


भारत की तरह चीन ने भी धरती पर सबसे पुरानी व समृद्ध सभ्यता की विरासत पायी है। कोई छह हजार वर्षों का उसका ज्ञात इतिहास है–अर्जनों और उपलब्धियों से लदा हुआ। और यदि पूछा जाए की चीन के इस लंबे और शानदार इतिहास में सबसे उजागर व्यक्तित्व, एक ही व्यक्तित्व कौन हुआ, तो आज का प्रबुद्ध जगत बिना हिचकिचाहट के लाओत्से का नाम लेगा। कुछ समय पूर्व इस प्रश्न के उत्तर में शायद कनफ्यूशियस का नाम लिया जाता। कनफ्यूशियस लाओत्से का समसामयिक था। और यह भी सच है कि बीते समय के चीनी समाज पर लाओत्से की जीवन-दृष्टि के बजाय कनफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए। Tao Upnishad


समय के थोड़े से अंतर के साथ भारत के बुद्ध और महावीर तथा यूनान के सुकरात भी लाओत्से के समकालीन थे। 
अचरज की बात है कि चीनी इतिहास को अपने सर्वाधिक मूल्यवान महापुरुष के जीवन-वृत्त के संबंध में सबसे कम तथ्य मालूम हैं। लेकिन यह दुर्घटना लाओत्से की असाधारन दृष्टि के बिलकुल अनुकूल पड़ती है। उनका ही यह वचन है : ‘इसलिए संत अपने व्यक्तित्व को सदा पीछे रखते हैं।’ 



प्रसिद्ध चीनी विद्वान लिन यूतांग ने अपनी पुस्तक ‘दि विजडम आफ लाओत्से’ में लिखा है : ‘लाओत्से के बारे में हम अत्यंत कम जानते हैं। इतना ही जानते हैं कि उनका जन्म 571 ई. पू. हुआ था। वे कनफ्यूशियस के समकालीन थे। और एक पुराने, सुसंस्कृत घराने से आते थे। राजधानी में सम्राट के अभिलेखागार के संरक्षण के पद पर लाओत्से कभी काम भी करते थे। मध्य जीवन में ही उन्होंने अवकाश ले लिया और गायब जैसे हो गए। संभवतः वे नब्बे वर्षों से अधिक दिनों तक जीए और पोते-पोतियों की संतित छोड़ कर मरे। उनमें से एक शासनाधिकारी भी बना।’ Shixa Aur Dharm


यह भी आश्चर्य की बात है कि इतनी लंबी उम्र रही हो जिनकी और इतनी गहरी प्रज्ञा को जो उपलब्ध हुए हों, उनके वचनों की मात्र छोटी-सी पुस्तिका मनुष्य-जाति को प्राप्त हुई। ताओ तेह किंग या दि बुक आफ ताओ अथवा ताओ उपनिषद उसका ही नाम है। इसमें लगभग इक्यासी छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिन्हें सूत्र कहना अधिक उचित होता। वर्तमान पुस्तक के आकार के पच्चीस-तीस पन्नों में वे पूरे वचन समा सकते हैं। 
और यह छोटा सा धर्म-ग्रंथ गीता या उपनिषद, धम्मपद या महावीर-वाणी, बाइबिल या कुरान या झेन्दावेस्ता की ही कोटि में आता है। किसी से जरा भी कम हैसियत नहीं है इसकी। और कुछ अर्थों में तो यह बिलकुल ही अनूठा और अतुलनीय है। Tao Upnishad



यह प्रज्ञा-पुस्तक कैसे प्रणीत हुई, इसकी भी बहुत रोचक कथा है। जब लाओत्से की ख्याति बहुत बढ़ गयी, तब उनके शिष्यों ने, यहां तक कि देश के सम्राट ने भी बहुत आग्रह किया कि उन्होंने जो जाना है, जो अनुभव किया है, उसे वे कहीं अभिलिखित कर दें। लेकिन ताओ के ऋषि लाओत्से सदा ही इनकार करते रहे। और जब आग्रह का जोर बहुत बढ़ गया, तब वे इससे बचने के लिए ही एक रात चुपचाप अपनी कुटिया छोड़कर, कुटिया क्या देश ही छोड़कर, भाग निकले ! लेकिन देश की सीमा पर सम्राट ने उन्हें पकड़वा लिया और कहलाया कि बिना चुंगी चुकाए आप सरहद के पार कैसे जा सकते हैं। सो, चुंगी-नाके पर ही चुंगी के रूप में यह अदभुत उपनिषद उदभूत हुआ, जिसका आरंभ ही इन शब्दों के साथ होता है : ‘सत्य कहा नहीं जा सकता। और जो कहा जा सकता है है, वह सत्य नहीं है। shixa aur dharm


और यह चुंगी चुका कर फिर ताओ तेह किंग के ऋषि कहां अंतर्धान हो गए, इसकी कोई भी खबर इतिहास में नहीं है। और यह भी उस संत के सर्वथा अनुरूप ही हुआ। कथा कहती है, लाओत्से सशरीर अनंत शून्य में लीन हो गए। Asambhav Kranti
यह ग्रंथ गागर में सागर भरने की अपूर्व और सफल चेष्टा है। प्राचीन समय के ज्ञानी अपनी बात, अपना दर्शन सूत्र रूप में या बीज-मंत्रों की तरह अभिव्यक्त करते थे। ताओ उपनिषद इस दृष्टि से भी अप्रतिम है। उसकी वाणी पाठकों को हमारे देश के संत कबीर की उलटबांसियों की याद दिलाएगी। जीवन की आदिम सहजता और स्वाभाविकता की, निर्दोषिता और रहस्यमयता की जैसी हिमायत की है, लाओत्से ने, वह कबीर के अत्यंत निकट पड़ती है। 



अपने इन प्रवचनों में ओशो ने कहीं कहा है : ‘पृथ्वी पर जितने जाननेवाले लोग हुए हैं, उनमें लाओत्से बहुत अद्वितीय है। कृष्ण की गीता में कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी कुछ जोड़ना चाहे तो जोड़ सकता है। महावीर के वचनों में, बुद्ध या क्राइस्ट के वक्तव्यों में कुछ भी मिश्रित किया जा सकता है। और पता लगाना बहुत कठिन होगा, क्योंकि इनके वक्तव्य ऐसे हैं कि साधारण मनुष्य की नीति और समझ के प्रतिकूल नहीं पड़ते। और इसलिए दुनिया के सभी शास्त्र प्रक्षिप्त हो जाते हैं, उनमें इंटरपोलेशन हो जाता है। दूसरी पीढ़ियां उनमें बहुत कुछ जोड़ देती हैं। इन शास्त्रों को शुद्ध रखना असंभव है। लेकिन लाओत्से की किताब जमीन पर बचनेवाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध हैं। इनमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता है। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जो़ड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो उसे लाओत्से बनना होगा। Tao Upnishad



अन्यत्र ओशो ने कहा है कि लाओत्से के पीछे धर्म या संप्रदाय निर्मित नहीं हो सका। इतिहास की यह भी एक विरल घटना है। कि इस संत ने सत्य को उसकी चरम ऊंचाइयों पर देखा ही नहीं, अभिव्यक्त भी किया। फिर ताज्जुब क्या कि उनकी इस अभिव्यक्ति पर टीकाकारों की कलम भी यदा-कदा ही उठ पायी। Asambhav Kranti
ओशो सच ही कहते होंगे कि लाओत्से में कुछ जोड़ने के लिए लाओत्से होना होगा। लेकिन हमें लगता है कि लाओत्से को ठीक से समझने और समझाने के लिए भी लाओत्से होने से कम से काम नहीं चलेगा। लाओत्से ही क्यों, कृष्ण या बुद्ध या उनकी हैसियत के किसी भी सत्य-द्रष्टा को समझने के लिए उनकी चेतना की ऊंचाई तक उठना अनिवार्य है। और शायद यही कारण है कि दुनिया में अब तक उनकी बातों से, जीवन से भी, अर्थ कम और अनर्थ ही अधिक निकाले गए हैं। 
हम अनधिकारी लोग और कर ही क्या सकते हैं ? 



अनंत अस्तित्व में लाओत्से की आत्मा यदि कहीं होती तो वह बहुत आनंदित होगी कि हजारों वर्ष बाद उसके ही एक समानधर्मा ओशो जैसे दुर्लभ द्रष्टा और मनीषी के हाथों ताओ तेह किंग की व्याख्या हो रही है। यह व्याख्या से भी अधिक उसका अनावरण है, रहस्योदघाटन है। यह नया ताओ उपनिषद कई अर्थों में वर्तमान युग की अभूतपूर्व कृति मानी जाएगी, इसमें हमें जरा भी संदेह नहीं है। 
ओशो स्वयं भी कहते हैं कि मैं अपने को लाओत्से के सबसे निकट पाता हूं। 



यह भी इतिहास की एक अनूठी घटना है कि ओशो एक ही समय में महावीर की वाणी और कृष्ण की गीता, ऋषियों के उपनिषद तथा लाओत्से की इस अकेली पुस्तक की व्याख्या किए चले जा रहे हैं। प्रायः एक ही महीने के अंदर वे इन सब पर बारी-बारी से बोल जाते हैं। किसी को चिंता हो सकती है कि परस्पर एक-दूसरे के ऐसे विरोधी व्यक्तियों के साथ वे न्याय कैसे करते होंगे ! 


लेकिन न्याय निस्संदेह होता है। इस दृष्टि से भी ओशो शायद धर्म के इतिहास में पहले प्रज्ञा-पुरुष हैं, जिन्होंने सभी अवतारों, तीर्थंकरों और पैगंबरों के साथ अपने को एकात्म कर लिया है। महावीर और बुद्ध मोहम्मद और क्राइस्ट और लाओत्से जैसी विरोधी प्रतीत होने वाली प्रतिभाओं के साथ एक होना चमत्कार ही है। मानो वे सबके सब सम्मिलित होकर, विलीन होकर ओशो में प्रकट हुए हों। Tao upnishad


इस संबंध में ओशो स्वयं इस ग्रंथ में कहीं कहते हैं : मेरा अपना खुद का निजी स्वभाव जो है, वह ऐसा है कि जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तब मैं लाओत्से होकर ही बोल रहा हूँ। मैं भूल ही जाऊँगा कि कभी कोई चैतन्य हुए थे कि कभी कोई मीरा हुई थी, कि कृष्ण ने कभी कोई गीता कही थी। मैं उन्हें बीच में नहीं लाऊंगा।’ और कारण है कि ‘मेरा अपना कोई लगाव नहीं है, इसलिए मैं किसी के साथ पूरा हो सकता हूं।’ 
यह ताओ उपनिषद का प्रथम खंड है, शेष पांच खंड शीघ्र ही प्रकाशित होने को हैं। ताओ के रहस्य-लोक में आपका स्वागत है।
Tao Upnishad

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